आम आदमी
रोज टूटता हूं, बिखरता हूं
हर पल जीता हूं, मरता हूं
बे इन्तिहा बेडियां है, पैरो में
फिर भी, हर दर्द सहकर चलता हूं
आम आदमी हूं,
सरकारी व्यवस्था की आग में
हर रोज जलता हूं।
निकलता हूं हर रोज घर
कुछ अच्छे की आस में
बच्चों की रोटी
और कुछ खुशियों की तलाश में
देखता हूं
बडे बडे होर्डिंग्स जन योजनाओं के
जो लगें हैं गलियों में,चौराहों पर
करते हुऐ बखान
सरकार की उपल्ब्धियों का।
और मन ही मन सोचता हूं कि
यदि सब कुछ होता है, मेरे लिये
तो मेरे ये हालात क्यूं है
धुंधले सवेरे
और दर्द भरी रात क्यूं है
हर दर पे मेरा त्रिस्कार क्यूं है
मेरे साथ
सौतेलों सा व्यवहार क्यूं है
आम ही ने खास बनाया है आपको
फिर आपके ही दर पर
आम का अपमान क्यूं है।
सपनों से मन तो बहलता
पर जिन्दगी नहीं चलती
पेट की आग रोटी से बुझती है
भूखे पेट श्रृद्धा नही पलती
ये जुमलें ये बातें, बस बातें भर हैं सरकार
इन जुमलों से आम आदमी की
तकदीर नहीं बदलती॥
हमें छलतें है, तुम्हारे वादे भी
केवल किस्मत ही नही छलती॥
सतीश बंसल