आरक्षण की रेलमपेल
हमारे एक मित्र के अनुसार –
आरक्षण तो रेलवे कोच में भी होता है पर, क्या कभी आपने सोचा है कि यदि संविधान के प्रथम अनुच्छेद के हिसाब से होता तो कैसा होता ! कुछ इस तरह :-
अपर कास्ट – अपर बर्थ
ओ बी सी – मिडिल बर्थ
एस सी – लोअर बर्थ
एस टी – ज़मीन पर
परिहास के रूप में अच्छा है पर, क्या ये कोरा परिहास है ? क्या ऐसा ही कुछ नहीं है ? आइये, ज़रा इस पर ग़ौर करते हैं।
अपर कास्ट अपर बर्थ पर ही है, जहाँ शंका समाधान तक, एक समस्या होती है। अगर आप चढ़ने उतरने के लायक नहीं रह गये हैं तो समस्या और भी विकट रूप धारण कर लेती है। कभी कभी सारा सफर आप शंकाओं के समाधान बिना ही बिताने को मजबूर हो जाते हैं। आप ठीक से ‘तन कर’ बैठ भी नहीं सकते। चाय वाला भी ऊपर चाय देने में हिचकता है क्योंकि वो जानता है कि पीछे की जेब से पैसा निकालने में आड़े तिरछे बैठे व्यक्ति को जितना समय लगेगा उतने समय में गाड़ी छूट जाएगी। गर्मीयों में तो और भी बुरा हाल है। सरकारी आँकड़ों की तरह अतार्किक और जड़ पंखे की हवा भी ‘नीचे’ वालों को ही मिलती है। अधर मे लटके त्रिशंकु की स्थिति क्या होती है, इस बर्थ पर बैठे व्यक्ति से लगायी जा सकती है। वैसे भी, उस बर्थ पर बैठ कर उस पर दिया गया किराया सरासर अन्याय लगता है, क्योंकि हर बर्थ बराबर सुविधा जनक नहीं होती।
मिडिल बर्थ को कोई भी पसंद नहीं करता क्योंकि इस पर विराजमान व्यक्ति (मैं बैठा शब्द का प्रयोग नहीं करूँगा क्योंकि वो इस बर्थ पर संभव ही नहीं है) एक तरह से भीड़ ही बढ़ता है। न तो खुद चैन से रहता है और न अपने ऊपर-नीचे वालों को चैन लेने देता है। इस बर्थ के खुलते ही नीचे वालों का चैन हराम हो जाता है। बैठना चाहें तो सर, ऊपर लेटे व्यक्ति की कमर से टकराता है। संविधान के कोच में यह ज़बरदस्ती की बर्थ अत्यंत दुःखदायी और फसाद पैदा करने वाली है। इस पर आरक्षित व्यक्ति अगर असमय अपना अधिकार जताने लगे तो समस्या पैदा होगी ही। कभी कभी एक बर्थ पर दो को भी एडजस्ट करना पड़ जाता है। ऐसी स्थिति मिडिल बर्थ के लिये सबसे ज्यादा कष्टदायी है। यदि दोनों व्यक्ति खाते पीते घर के हुए (और जैसा कि अक्सर है भी) तो सारा सफर कभी इसको लिटा तो कभी उसको लिटा कर ही गुज़रता है।
लोअर बर्थ को, इसके साथ उपलब्ध सुविधाओं की वजह से, कौन नहीं चाहता। अपर बर्थ वाले तक अपनी स्थिति एक्सचेंज करने को तैयार मिलते हैं। बड़े तो बड़े, यहाँ तक कि जवान और हर तरह से सक्षम भी इस बर्थ पर बैठना चाहते हैं। रात में बर्थ पर बिना तकलीफ चढ़ने उतरने का सुख मिलता है और दिन में, जो कि बैठने का समय होता है, इस पर आरक्षित को खिड़की की तरफ वाला हिस्सा मिलता है। ऊपर वाले को किनारे का हिस्सा, जहाँ न तो खिड़की से आती ताजी हवा मिलती है, न यही पता चलता है कि बाहर दुनिया में क्या हो रहा है। मिडिल बर्थ वाले का हाल तो वस्तुतः धोबी के कुत्ते का है, न घर का न घाट का। नीचे वालों से बराबरी करने के चक्कर में वह नीचे वालों को मिलने वाले सुख से वंचित तो होता ही है, ऊपर वाले की उच्चता से भी जाता है। बस, दोनों के बीच में कसमसा कर रह जाता है। मिडिल बर्थ की अपर्याप्तता ही उसकी नियति बन जाती है। अपनी आकांक्षाओं के समायोजन की कोशिश में न तो वह खिड़की का आनन्द ले पाता है और न ही एसिल से गुज़रते पेय और खाद्य पदार्थों की निकटता ही पाता है। पर इन तमाम असुविधाओं के बावजूद क्या वह इस बर्थ का आरक्षण त्यागता है ? नहीं । उल्टे, वो इस बर्थ को बड़ी करने की माँग करता रहता है। अगर कोई उससे पूछे की कैसे, तो कहता है कि थोड़ी सी नीचे से और थोड़ी सी ऊपर से ले कर इस बर्थ को बड़ा किया जा सकता है। यों तो स्टेटस में वो मिडिल बर्थ को निचली बर्थ से ऊपर समझता है पर प्रतिस्पर्धा निचली बर्थ की सुविधाओं से करता है।
सत्य रूप में ज़मीन पर लेटा व्यक्ति ही असली दलित है। ऊपरी बर्थों पर बैठे व्यक्ति जब मी नीचे पैर रखेंगे तो न चाहते हुए भी उसी पर पड़ेगा । असल में वही लतियाया जाता है। यह एक विडम्बना ही है कि इसका यह स्टेटस लोअर बर्थ वाले से नहीं देखा जाता है। ठीक जिस प्रकार बिना प्रयास वो खिड़की से आती ताज़ी हवा और मनोरम दृष्यों का आनन्द पा लेता है, उसी प्रकार वह इस लतियायी स्टेटस, अर्थात दलित स्टेटस (यूँ, अति दलित और महा दलित शाखाओं में इसका विस्तार हो चुका है, पर हकीकत में यह पद दलित है) को भी अगवा करने से बाज़ नहीं आता। उसे लगता है कि दलित कहलाने से शायद वह और ज्यादा संवेदना का दावेदार बन जाएगा। लोअर बर्थ वाले को बापू ने उचित ही ‘हरिजन’ का स्टेटस दिया था क्योंकि हरि के कृपा पात्र को ही लोअर बर्थ की सुविधाएँ उपलब्ध हो सकती हैं। पर वो कहते हैं न कि “गदहे को अरगजा लेपन, मरकट भूषण अंग”, अर्थात गधे को उबटन लगाना और बंदर को गहने पहनाना व्यर्थ है क्योंकि वे इन उपयोगी सुविधाओं का अर्थ नहीं जानते । गधा धूल में लोटेगा ही और बंदर आभूषणों को नोच कर फेंक देगा । हरिजन कहलाना गाली है और दलित कहलाना ? ख़ैर, ये हमारे ग़ौर का विषय भी नहीं है। जिनको वोट नीति से मतलब हो वो इस पर अपना दिमाग खराब करें ।
जमीन पर पड़े व्यक्ति का आरक्षण तो टीटी की कृपा पर ही है। देखा जाय तो हो भी यही रहा है। उस तक पहुँचती इमदाद टीटी सरीखे अपनी जेब के हवाले करते हैं और उसे सबके कदमों में लिटा देते हैं। लगता है रेल के डिब्बे की संरचना बनाने वाले इन यात्रियों की बाबत भूल गये। जो सक्षम हैं वे टू टायर, प्रथम श्रेणी या हवाई जहाज से चलते हैं क्योंकि उन्हे आरक्षण से ज्यादा अपने उद्यम पर भरोसा होता है। जो किसी भी प्रकार से सक्षम नहीं हैं, अर्थात न तो उनमें उच्च श्रेणी में चलने की काबिलियत है और न ही वे आरक्षण का फायदा उठा पा रहे हैं, उनके लिये जनरल क्लास होता है, जिसमें, जो बैठ गया, वो बैठ गया और जो नहीं बैठ पाया, वो खड़ा खड़ा ही चलता है। इस क्लास में सोना नहीं अलाउड है क्योंकि जिनकी किस्मत ही सो रही हो उनके सोने का प्रश्न ही कहाँ उठता है।
यह एक विडम्बना ही है कि बढ़ती आबादी को खुश रखने के लिये सरकार आरक्षित डिब्बे बढ़ाती जा रही है पर, कब तक और कहाँ तक ! दिन ब दिन नए नए लोग आरक्षण की सुविधा माँगने लगे हैं। हालत ये है कि कई गाड़ियाँ प्लेटफार्म की नाप भी पार कर चुकी हैं। जनरल डिब्बों की तरफ सरकार का ध्यान ही नहीं है जब की आबादी का जनरल तबका आरक्षित तबके से कहीं ज्यादा तेज़ी से बढ़ रहा है। मेरी समझ में तो हर डिब्बे को जनरल कर देना चाहिये। रेलों में ज्यादा यात्री सफर कर सकेंगे। जो सक्षम होंगे उन्हें बैठने की जगह भी मिल जाएगी। और जब व्यवस्थाएँ लोगों की क्षमता पर आधारित होंगी तो लोग अपनी अपनी क्षमता बढ़ाने को प्रयत्नशील भी होंगे । इस प्रकार समाज के एक बहुत बड़े हिस्से को अकर्मण्यता और गुणहीनता से बचाया जा सकता है और सफर के आनन्द में सबको बराबर का भागीदार बनाया जा सकता है। मैं तो एक ऐसे ही भारत की कल्पना संजोए बैठा हूँ। आप क्या सोचते हैं !
बहुत बढ़िया पाण्डेय जी …………..!