मुद्दत बाद
मुद्दत बाद गुजरा हूँ तेरी गली से
इल्म है की तुम्हें न देख पाउँगा।
फिर भी एक उम्मीद है कि
शायद मेरे कदमों की आहट सुन लो।
वर्षों बीत गए और आँखों की
रौशनी भी कम हो गई।
पर तुम आज भी मन की आँखों
में सौंदर्य की सलोनी प्रतिमा हो।
दरीचे,दरख्त,खिड़कियां वही
बस तुम्हारा शोख चेहरा नहीं।
झिझक थी दिल में,कुछ न कह सका
मगर नज़र से तेरी कुछ न छुप सका।
कुछ नहीं ये मजहब की दीवार थी
मैं इस पार था तू उस पार थी।
हौंसला न था,शामिल तेरा नाम करूँ
कैसे माँ के यकीन को नीलाम करूँ।
ठिठक कर रह गई ज़िन्दगी
हसरतें भी अश्क़ में बह गईं।
ये चन्द साँसों का तिलिस्म था।
जिसमें राह ढूंढता मेरा जिस्म था।
फिर एक और सांस सिमट गई
यादें रह गईं,तस्वीरें मिट गईं।
झूठी शान-ओ-शौकत बचाने में
मेरे इश्क़ की आबरू ही लुट गई।
सुना था कि घर से जाते वक़्त
तेरी आँखों में सैलाब उमड़ा था।
जख्मों से ताल्लुकात सुधरे
मेरा भी हर ख्वाब उजड़ा था।
तेरी अदालत में बेगुनाह होकर
बतौर मुजरिम खड़ा हूँ ।
सजा कोई तो मुकर्रर कर दो
दिल का बोझ हल्का हो जाए।
मार्मिक रचना
आदरणीया हृदय से धन्यवाद
अच्छी कविता।
सराहना के लिए धन्यवाद सर जी