आत्मकथा

आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 46)

दीपावली समारोह

श्रीमती जी के आॅपरेशन के बाद जो दीपावली आयी, वह हमने पंचकूला में ही मनाना तय किया। सूरत से मेरे बड़े साढ़ू श्री हरिओम जी अग्रवाल अपनी पत्नी श्रीमती सुमन और बड़े पुत्र मोनू के साथ दीपावली पर पंचकूला आ गये। उनके साथ हमारा त्यौहार अच्छा मन गया। उनका छोटा पुत्र ईशान्त (ईशू) उस समय आगरा में रहकर पढ़ रहा था। इसलिए वह नहीं आया।

दीपावली पर हमारे संस्थान में अधिकारियों के सामूहिक मिलन का आयोजन किया गया। इसमें हम सभी सम्मिलित हुए। इसी समारोह में हम पहली बार कई अधिकारियों के परिवारों से मिले। हमारे एक अधिकारी श्री गौरी शंकर शर्मा संस्थान में नये आये थे। उनके दो जुड़वाँ सन्तानें हैं- एक पुत्र पिहू और एक पुत्री कुहू। उन दोनों को देखकर हमें बड़ा आनन्द आया। मैंने उनको एक साथ गोदी में लेकर फोटो खिंचवाया। राव साहब के परिवार से भी पहली बार सबका परिचय हुआ। उस दिन विशेष भोजन बनाया गया था और कुछ आतिशबाजी भी हुई थी।

देवी दर्शन

दीपावली के एक दिन बाद हमारे साढ़ू साहब के परिवार की इच्छा हिमाचल की पाँच प्रमुख देवियों का दर्शन करने की हुई। ये देवियाँ हैं- नैना देवी, चिन्तपूर्णी देवी, कांगड़ा देवी, ज्वालामुखी देवी और चामुंडा देवी। इसके लिए हमने टैक्सी तय कर ली। श्रीमतीजी अपने आॅपरेशन के कारण जा नहीं सकती थीं और बच्चों की पढ़ाई चल रही थी। इसलिए उनके साथ केवल मैं गया। हम दो दिन में आराम से सारी देवियों के दर्शन कर आये। वैसे मैं वैदिक या आर्यसमाजी विचारधारा का होने के कारण मूर्तियों के दर्शन-वर्शन और पूजा-वूजा नहीं करता, लेकिन पहाड़ों की यात्रा का आनन्द उठाने के लिए उनके साथ गया था और पूरा आनन्द उठाया। साथ में हमने भाखड़ा-नांगल बाँध भी देखा। बीच की एक रात हमने कांगड़ा में एक सरकारी यात्री निवास में गुजारी थी। सौभाग्य से रास्ते में कोई कष्ट नहीं हुआ, हालांकि थकान काफी हो गयी थी।

इन देवियों के दर्शन की मनौती श्रीमती जी ने मान रखी थी, परन्तु वे नहीं जा पायीं। अगर मेरे साढ़ू न आते, तो शायद मैं भी नहीं जा पाता।

प्रेरणा का झगड़ा

मैं लिख चुका हूँ कि हमारे संस्थान में प्रशिक्षण प्रोग्राम चला करते थे, प्रायः एक सप्ताह यानी 6-6 दिन के। हर सप्ताह किसी एक अधिकारी को उस प्रोग्राम का कोआॅर्डिनेटर बनाया जाता था। उसका काम था, सभी कोर्सों के लिए कार्यक्रम बनाना और पढ़ाने वालों को कोर्स एलाट करना। प्रायः यह कार्यक्रम हर सप्ताह एक जैसा होता था, केवल तारीखें बदल जाती थीं।

एक बार फरवरी 2010 में प्रेरणा कश्यप को कोआॅर्डिनेटर बनाया गया। उसने कार्यक्रम को इस प्रकार बदल दिया कि कोई पीरियड तो 45 मिनट का हो गया और कोई डेढ़ घंटे का। कहना कठिन है कि ऐसा उसने जानबूझकर किया था या अनजाने में हो गया। जब यह कार्यक्रम शालू सेठ को मिला, तो उसने देखा कि उसका पीरियड डेढ़ घंटे का कर दिया है और प्रेरणा का अपना पीरियड केवल 45 मिनट का रह गया था। उस समय शालू गर्भवती थी और उसको शायद 5वाँ महीना चल रहा था। शालू ने इसी कारण मेरा ध्यान इस ओर खींचा कि उसका पीरियड प्रेरणा ने बहुत लम्बा कर दिया है और इतनी देर तक लगातार खड़े रहना उसके लिए अच्छा नहीं है। वैसे प्रेरणा भी गर्भवती थी और उसका शायद दूसरा ही महीना था। हो सकता है इसीलिए उसने ऐसा जानबूझकर किया हो।

मुझे शालू की बात बिल्कुल ठीक लगी, इसलिए मैंने प्रेरणा को बुलाया और पूछा कि पीरियडों के समय में इतना अन्तर क्यों किया है। अब वह मेरे सवाल का जबाब तो दे नहीं रही थी और बार-बार यही पूछ रही थी कि आपको यह किसने बताया है। मैंने टालने की कोशिश की और कहा कि मेरा खुद ही इस पर ध्यान गया है, परन्तु वह न मानी। तभी बातचीत में गलती से मेरे मुँह से शालू का नाम निकल गया। यह सुनते ही वह उसी समय शालू से लड़ने पहुँच गयी। पीछे-पीछे मैं भी वहाँ पहुँच गया और मैंने उसे डाँटकर कहा कि शालू से क्यों लड़ रही हो, मुझसे लड़ो और तुमने जो गलती की है उसे ठीक करो। किसी तरह मैंने दोनों को शान्त कराया। उसके जाने के बाद शालू बहुत रोयी। मुझे बहुत बुरा लगा।

अगले दिन मैंने प्रेरणा को अपने कमरे में बुलाकर कहा- ‘कल तुम शालू से क्यों लड़ी थीं? तुम्हारे जाने के बाद वह बहुत रोयी थी। उसे परेशान मत किया करो। शालू बहुत प्यारी है।’ यह सुनते ही वह एकदम जल गयी और कुढ़कर बोली- ‘सब प्यारी हैं, मैं प्यारी नहीं हूँ।’ मुझे उसके मुँह से यह सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ। महिलाओं में ईर्ष्या की भावना होती है, यह मैं जानता हूँ। परन्तु वह भावना इतनी प्रबल होती है, इसका अनुभव पहली बार हुआ। मैं उससे कहने वाला था कि तुम भी बहुत प्यारी हो, पर कह नहीं पाया, क्योंकि उसी समय एक अधिकारी मेरे कमरे में आ गया और हमारी बातचीत रुक गयी।

इसके बाद मुझे प्रेरणा से बात करने का मौका नहीं मिला, क्योंकि इसके कुछ दिन बाद ही मेरा स्थानांतरण लखनऊ हो गया। अगर उससे बात करने का मौका मिलता, तो मैं उससे कहता कि ‘तुम शालू से किसी बात में कम नहीं हो, न पढ़ाई-लिखाई में, न ज्ञान में, न काम में। सोचो कि फिर भी सब लोग शालू को क्यों प्यार करते हैं और तुम्हें क्यों नहीं करते? इसका कारण है तुम्हारा घमंड। शालू सबके साथ इज्जत से बात करती है और तुम घमंड में बात करती हो। अगर तुम भी सबसे मुस्कराकर प्यार और इज्जत से बात करना शुरू कर दो, तो सब लोग तुम्हें शालू से भी ज्यादा प्यार करेंगे।’

लखनऊ स्थानांतरण

फरवरी 2010 में मुझे पंचकूला में रहते हुए लगभग 5 साल हो रहे थे। मुझे आशा थी कि मैं कम से कम एक साल और पंचकूला में रखा जाऊँगा, तब तक दीपांक की इंजीनियरिंग भी पूरी हो जाएगी और मोना का इंटरमीडियेट भी हो जाएगा। लेकिन अचानक फरवरी के आखिरी सप्ताह में मेरा स्थानांतरण लखनऊ होने का आदेश आ गया। मुझे इसका थोड़ा दुःख था, लेकिन प्रसन्नता भी थी कि मैं कहीं दूर जाने के बजाय लखनऊ जा रहा हूँ, जहाँ मैं पहले भी 6 साल रह चुका हूँ, जब एच.ए.एल. में सेवा करता था।

वह आदेश आने पर हमारे संस्थान के प्रमुख श्री राव साहब को बहुत धक्का लगा। वे काफी दुःखी लग रहे थे, क्योंकि मेरे साथ उनका बहुत लगाव हो गया था। लेकिन मैंने स्थानांतरण रुकवाने का कोई प्रयास नहीं किया और स्वीकार कर लिया। स्वामी रामदेव जी उस वर्ष 5 मार्च को पंचकूला आ रहे थे, इसलिए मैंने राव साहब से केवल यह निवेदन किया कि उनका कार्यक्रम हो जाने के बाद ही मुझे कार्यमुक्त करें। वे प्रसन्नता से तैयार हो गये और मैं शनिवार 6 मार्च को ही कार्यमुक्त किया गया। उसी दिन मेरी विदाई हुई। मेरी विदाई में सभी अधिकारियों ने कुछ न कुछ अवश्य बोला था और मेरी बहुत प्रशंसा की थी। केवल प्रेरणा कुछ नहीं बोली थी।

लखनऊ स्थानांतरण से मेरी पारिवारिक योजनाओं को भी बहुत झटका लगा। मार्च में पढ़ाई का एक सत्र समाप्त हो रहा था, इसलिए हमें उसकी चिन्ता नहीं थी। चिन्ता अगले सत्र की थी। दीपांक होस्टल में या किसी दोस्त के साथ रहकर एक साल पढ़ने को तैयार था। इसलिए हमने सोचा कि मोना का प्रवेश लखनऊ में ही कक्षा 12 में किसी ऐसे इंटरकालेज में करा देंगे, जहाँ सी.बी.एस.ई. का कोर्स चलता हो। अपने बड़े भाई जैसे मित्र श्री गोविन्द राम अग्रवाल से बात करने पर उन्होंने कहा कि वे एच.ए.एल. स्कूल में अवश्य उसका प्रवेश करा देंगे।

यह जानकर मेरी एक चिन्ता खत्म हुई, परन्तु एक नयी समस्या पैदा हो गयी कि मोना किसी भी हालत में वह कोर्स छोड़ने को तैयार नहीं हुई। उसने रो-रोकर आसमान सिर पर उठा लिया। मजबूरी में हमने यह तय किया कि मैं अकेला एक वर्ष लखनऊ में रह लूँगा और बाकी सब यहीं रहकर एक साल पूरा करेंगे। हमारे बैंक में स्थानांतरित होने वाले अधिकारियों को अपना लीज का मकान अधिक से अधिक एक साल तक रोकने की सुविधा मिलती है, ताकि बच्चों की पढ़ाई बाधित न हो। मैंने इस सुविधा का लाभ उठाने का निश्चय किया और राव साहब से बात करके अपना लीज का मकान एक साल अर्थात् मार्च 2011 तक रोकने की अनुमति ले ली। किराया मेरे लखनऊ के मंडलीय कार्यालय से मिलना था, जहाँ मैं स्थानांतरित किया गया था।

जब पंचकूला में संघ के लोगों को पता चला कि मेरा स्थानांतरण लखनऊ हो गया है, तो वे भी बहुत दुःखी हुए। उन्होंने मेरे जाने से एक-दो दिन पहले मेरा विदाई समारोह आयोजित कर डाला। यह समारोह हमारे ही सेक्टर 12-ए में स्थित भारत विकास परिषद भवन में हुआ था। करीब 10-12 स्वयंसेवक सपरिवार आ गये थे। सब अपने घर से भोजन की कोई न कोई चीज बनाकर लाये थे। यह समारोह मुझे बहुत अच्छा लगा। ऐसा समारोह मेरे लिए पहली बार हो रहा था, हालांकि कानपुर से स्थानांतरण होने पर मुझे अपनी शाखा के लोगों की ओर से और विश्व संवाद केन्द्र, कानपुर की ओर से भी अलग-अलग विदाई दी गयी थी। लेकिन यह पहला अवसर था, जब मेरे विदाई समारोह में स्वयंसेवकों के परिवार भी सम्मिलित हुए थे।

 

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

10 thoughts on “आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 46)

  • शशि शर्मा 'ख़ुशी'

    आपका लेख पढा,,, सच कहा है आपने नारी में ईर्ष्या की भावना कुछ अधिक ही होती है यही एक वजह है कि नारी ही नारी की दुश्मन बन जाती है वरना अगर वो चाहे तो नारी की स्थिती इतनी बुरी ना हो,,, पुरुष-प्रधान समाज के साथ साथ नारी की बुरी स्थिती की एक अहम वजह उनकी आपसी ईर्ष्या भी है | अब तो समय के साथ साथ पुरूषों की सोच में बेहद बदलाव आये हैं | बस नारी ही नारी की दुश्मन होने से बचे बल्कि एक दुसरे की सहयोगी बने तो बात बन जाये | और घमंड तो किसी के लिये भी अच्छा नही, वो हर घमंडी इंसान को लोगों से दूर करता है | आपकी तबादले वाली परेशानी को मैं बेहतर समझ सकती हूँ क्योंकि हमारे साथ भी यही होता है, बीच सेशन में तबादला करना बेहद नुकसानदायक व परेशानियों भरा होता है |

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , आज का लेख पड़ कर बहुत कुछ समझ में आया , एक तो नारी अपनी ही जात की दुश्मन होती है ,समझ आ गई . एक तरफ तो अक्सर कहा जाता है कि नारी पर सदिओं से जुलम होते चले आ रहे हैं ,दुसरी तरफ नारी खुद ही अपना नुक्सान कर रही है ,जो बहुत दुखद बात है .
    स्थानान्त्र्ण की बातें बहुत ही बुरी हैं ,इस से जीवन में खलबली हो जाती हैं , बच्चों के सकूल का सभ कुछ गड़बड़ हो जाता है ,इस के लिए सरकार को कदम उठाने चाहियें .

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, भाईसाहब ! आपका कहना सही है। वास्तव में नारी ही नारी की दुश्मन होती है। बदनामी पुरुषों को मिलती है।
      ट्रांसफ़र से कष्ट होता ही है। सबसे अधिक कष्ट बच्चों की पढ़ाई लिखाई में बाधा आने से होता है। सभी नौकरी वालों को यह झेलना पड़ता है। हालाँकि नियम ऐसा है कि सत्र के बीच में स्थानांतरण नहीं होने चाहिए। पर इन नियमों को मानता कोई नहीं और कभी भी कहीं भी ट्रांसफ़र कर दिया जाता है। शिकायत करने पर कोई सुनवाई नहीं होती।

  • मनमोहन कुमार आर्य

    नमस्ते श्री विजय जी। आज की क़िस्त के सभी प्रसंग पढ़े। आपका स्थांतरण लखनऊ होने से आपका जीवन अस्तव्यस्त हुआ, इसे पढ़कर अप्रिय लगा। मेरी पुत्री स्टेट बैंक में है। विगत आठ नौ वर्षों में वह ७ वर्ष गुवाहाटी, शिलांग, तेज़पुर आदि की कई ब्रांचों में रही फिर देहरादून आने के बाद भी अनेकशाखाओं में कार्य किया और अब ५० किलोमीटर की दुरी पर एक ब्रांच में है। इससे परिवार वालो को जो कठिनाई होती है उसकी अनुभूति हमने की है. मेरे अन्य दो पुत्र भी बैंक व सरकारी सेवाओं में है। मुझे कर्मचारियों की स्थानांतरण प्रक्रिया में अनेकों खामियां लगती है। हमारा सिस्टम आज भी तर्क़संगत नहीं है। केंद्र या राज्य में किसी भी पार्टी की सरकार बने, इन खामियों में सुधार होने की संभावना नहीं है।

    • विजय कुमार सिंघल

      प्रणाम, मान्यवर ! आपका कहना सत्य है। यों तो सभी जगह स्थानांतरण मनमाने तरीके से होते हैं पर बैंकों में यह बीमारी कुछ ज्यादा ही है। मेरे तो फिर भी कम हुए हैं क्योंकि मैं कम्प्यूटर विशेषज्ञ हूँ। पर जो शाखाओं में काम करते हैं उनके सिर पर स्थानांतरण की तलवार हमेशा लटकी रहती है। इसके लिए नियम भी बने हुए हैं पर उनको मानता कोई नहीं। लखनऊ से नवी मुंबई भी मेरा स्थानांतरण नियम विरुद्ध हुआ है। पर यहाँ मैं बहुत खुश हूँ।

    • Man Mohan Kumar Arya

      धन्यवाद श्री विजय जी।

  • वैभव दुबे "विशेष"

    सत्य वचन सर जी
    घमंडी मनुष्य को कोई
    पसन्द नहीं करता
    उसकी एक अपनी
    अलग तन्हा दुनिया होती
    जिसमें वो नासमझ अपने झूठे
    अभिमान के साथ जीवन व्यतीत
    करता है।

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद ! बिल्कुल सही कहा आपने।

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    नारी में ईर्ष्या बहुत होती है
    आपका आलेख पढ़ बहुत अच्छा लगता है

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, बहिन जी !

Comments are closed.