जिन्दगी खामोश है, ठहर सी गई है ………………………………….
जिन्दगी खामोश है
ठहर सी गई है,
रंगमंच खाली पड़ा है,
वक्त यूंही निकल रहा है,
मेरी कलम नहीं ठहरी है,
उसे बढ़ना है,
मुझे सम्भालना है,
वक्त यूंही निकल रहा है,
जिन्दगी में कई पात्र देखे,
उनमें ढलने की भी
बहुत कोशिश की मैंनें,
वक्त यूंही निकल रहा है,
जो चाहा उसे पाने की
दूरी बढ़ती ही रही,
ना खत्म होने वाला ये इंतजार,
वक्त यूंही निकल रहा है,
कोई चुभन मन में है,
कोई घात लिए बैठा है,
रास्ते बुलाते हैं मुझे,
वक्त यूंही निकल रहा है,
बर्फ पुरी पिघलती नहीं
फिर से जमने लगती है,
शिकायत दूर होने से पहले ही
वक्त यूंही निकल रहा है,
खामोशी टूटेगी एक दिन,
मेरी चेतना मेरा चिन्तन,
कुछ तो भरेगा मन को
वक्त यूंही निकल रहा है,
हर पौधे का अनुराग है,
अनुरक्त भी और नव जीवन भी,
मैं क्यों पतझड़ बना हूँ अब तक,
वक्त यूंही निकल रहा है,
दो ह्दय की मध्यस्था के लिए
दूनिया को खोज लिया,
मन अब तक ना मिले,
वक्त यूंही निकल रहा है,
यह कविता आपने ५ अगस्त को भी लगायी थी। कृपया नई रचना लगायें।