कोई भूख से मरता है…
कोई भूख से मरता है
मैं सपनों की बात कैसे करुं।
वहां मौत का मातम है
मैं यहां रंगरास कैसे करुं।
होते होगें पत्थर के दिल उनके
जो मुस्कुरा लेते हैं औरों के रोने पर
मैं तो बस साधारण इंसान हूं
काबू मानवीय जज्बात कैसे करुं॥
लोग तो सैंकते हैं
लाशों पर भी रोटियां
लोग जज्बात को भी
व्यापार बना देते है।
लगी को बुझानें
भला अब कौन आता है
लोग तो बुझी को भी
कुछ और हवा देतें है॥
पार जाना है अगर
तो नाव भी बन और नाविक भी
क्योंकि इस दौर में
मांझी ही डुबो देते है।
अब भला भरोसा
कौन किस पर करे
अब तो कोख के जाये को ही
लोग खुद मार देते है॥
और कलयुग है ये
रामराज्य के सपने मत पाल
हकीकत को समझ
परम्परा के सिक्के मत उछाल
क्योंकि आज की दुनियां में
सब कुछ उलटा पुलटा है
खरे की कीमत यहां कोई नही जानता
और खोटा सिक्का
डंके की चोट पर चलता है॥
सतीश बंसल
बहुत खूब !
शुक्रिया विजय जी…