आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 47)
लखनऊ में
मैं 8 मार्च 2010 को प्रातःकाल ही लखनऊ आ गया और निर्धारित समय पर अपने कार्यालय में भी उपस्थिति दे दी। मेरे निवास की व्यवस्था विश्व संवाद केन्द्र में हुई थी। वहाँ के पिछले प्रमुख श्री राजेन्द्र जी सक्सेना मेरे घनिष्ट मित्र हैं। वे उस समय गोरखपुर में थे और अभी वाराणसी में हैं। उनकी जगह आये थे श्री अमर नाथ जी, जिनसे वाराणसी में मेरा परिचय मेरे अति घनिष्ट मित्र श्री चन्द्र मोहन जी के माध्यम से हुआ था। ये सभी संघ के जीवनदानी प्रचारक हैं। इसलिए विश्व संवाद केन्द्र में मेरे निवास की व्यवस्था होने में कोई कठिनाई नहीं हुई। अवध (लखनऊ) के प्रान्त प्रचारक श्री कृपा शंकर जी ने भी यहाँ मेरे निवास की अनुमति दे दी थी। इसलिए मुझे कोई चिन्ता नहीं थी।
उस समय मेरे मन में आया कि अगर मैं अपना लखनऊ वाला मकान न बेचता अर्थात् दो साल और रुक जाता, तो यहाँ रहकर उसे ठीक करा लेता और उसी में रहता। परन्तु शायद प्रभु की इच्छा नहीं थी कि मैं ‘अपने’ मकान में जाकर रहूँ।
विश्व संवाद केन्द्र, जियामऊ में कैंसर अस्पताल के पीछे और पानी की टंकी के सामने है और मेरे हजरतगंज स्थित मंडलीय कार्यालय से केवल डेढ़ किमी दूर है। अतः मेरे लिए काफी सुविधाजनक था। वहाँ एक चार मंजिला भवन है, जिसमें 20-25 कमरे हैं। ऊपर की दोनों मंजिलें लगभग खाली पड़ी थीं। वहीं पहले अतिथि कक्ष में, फिर एक कमरे में मैंने अपनी व्यवस्था कर ली। प्रारम्भ में अपने कमरे में मैं अकेला ही था, बाद में एक-दो विद्यार्थी और भी आ गये। मुझे इससे कोई असुविधा नहीं थी, क्योंकि मेरी आवश्यकतायें बहुत सीमित हैं।
मैं अपने नाश्ते के लिए चने भिगोकर अंकुरित करता था और साथ में दूध या दही पी लेता था। दोपहर का भोजन मैं अपने कार्यालय के पास एक होटल में किया करता था। सायंकाल के भोजन के लिए मैं जियामऊ में ही किसी होटल में जाता था, जिन्हें यहाँ मैस कहा जाता है। वास्तव में जियामऊ हजरतगंज के पास होने तथा किराये के कमरे सस्ते में मिल जाने के कारण यहाँ प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों की एक बड़ी संख्या है। उनके भोजन की व्यवस्था के लिए यहाँ दर्जनों मैस खुल गयी हैं। वहीं उचित दाम में शुद्ध सात्विक घर जैसा भोजन मिल जाता है। वहीं प्रातः नाश्ते में आलू के परांठे भी मिलते हैं, जो मैं कभी-कभी खा लेता था। बाद में मैंने एक मैस में नियमित जाना प्रारम्भ किया, जो एक विधवा महिला चलाती थी। उसे सभी विद्यार्थी ‘भाभी’ कहते थे। उसका खाना बहुत अच्छा होता था। लेकिन लगभग 4-5 माह बाद ही वह अचानक चली गयी, क्योंकि वह जगह किराये की थी। फिर मैंने एक जगह से टिफिन मँगाना शुरू किया, जो केन्द्र छोड़ने तक चलता रहा। इस प्रकार कुल मिलाकर मेरे भोजन की संतोषजनक व्यवस्था थी।
वैसे विश्व संवाद केन्द्र में भी भोजन बनता था, पर वह केवल पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं के लिए था, हमारे जैसे गृहस्थियों के लिए नहीं। इसलिए मैं हमेशा बाहर का खाना खाता था।
कार्यालय का हाल
लखनऊ में मेरी पदस्थापना इलाहाबाद बैंक के हजरतगंज स्थित मंडलीय कार्यालय लखनऊ में डी.आर.एस. विभाग के मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के रूप में हुई थी। इस विभाग का पूरा नाम ‘डिजैस्टर रिकवरी साइट’ है। वास्तव में, हमारे बैंक का मुख्य सर्वर मुम्बई में लगा हुआ है, जिससे बैंक की सभी शाखाएँ जुड़ी हुई हैं। हमारे विभाग में उसी सर्वर का बैकअप सर्वर है। यदि किसी कारणवश या दुर्घटनावश मुम्बई का सर्वर और उसका मिरर सर्वर दोनों असफल हो जाते हैं, तो कुछ ही घंटों में हमारे विभाग के सर्वर को उसका कार्य करने के लिए चालू कर दिया जाएगा। अभी उस पर प्रत्येक 15 मिनट के अन्तराल पर इस बीच होने वाले सभी लेन-देनों का बैकअप लिया जाता है।
साल में लगभग 3-4 बार हमारे सर्वर की जाँच भी की जाती है। किसी निर्धारित दिन मुम्बई के सर्वर के कार्य क्रमशः हमारे सर्वर पर स्थानांतरित किये जाते हैं। जब सभी कार्य स्थानांतरित हो जाते हैं, तो उनको पूरे 24 घंटे या अधिक समय तक हमारे सर्वर के माध्यम से ही किया जाता है और मुम्बई का सर्वर इसके बैकअप का कार्य करता है। इस अवधि में सभी कार्यों की जाँच भी की जाती है। समय पूरा होने पर फिर सभी कार्यों को क्रमशः मुम्बई के सर्वर पर स्थानांतरित किया जाता है और सभी कार्य स्थानांतरित हो जाने पर हमारा सर्वर फिर बैकअप का कार्य करने लगता है। यह एक जटिल लेकिन अनिवार्य प्रक्रिया है, ताकि किसी संकट के समय हमारा सर्वर धोखा न दे जाये। इस प्रक्रिया को ‘ड्रिल’ कहा जाता है। मेरे सामने यह प्रक्रिया कई बार की गयी थी और एक दो बार मामूली गड़बड़ी के अलावा इसमें कोई बड़ी समस्या कभी उत्पन्न नहीं हुई।
हमारा विभाग 24 घंटे खुला रहता था। अधिकारी 8-8 घंटे की तीन शिफ्टों में आते थे हमारा कम से कम एक अधिकारी हर शिफ्ट में अवश्य हर समय उपस्थित रहता था। शेष अधिकारी सामान्य शिफ्ट में आते थे, जो साढ़े दस बजे से सायं साढ़े पाँच बजे तक होती है। विभाग में मुझे मिलाकर 8 अधिकारी हैं, जिनमें 2 महिलायें थीं। सभी अधिकारियों को आवश्यकता के अनुसार शिफ्टें आवंटित की जाती हैं। यही मेरा प्रमुख कार्य था। जब कोई अधिकारी अवकाश पर जाता था, तो उसकी जगह किसी अन्य अधिकारी की ड्यूटी लगानी पड़ती थी। वैसे इसमें कोई समस्या नहीं आती थी, लेकिन यदि दो या तीन अधिकारी एक साथ छुट्टी पर चले जाते थे, तो ड्यूटी लगाने में समस्या आ जाती थी। ऐसी स्थिति में मैं महिला अधिकारियों को छुट्टी के दिन भी शिफ्ट ड्यूटी करने के लिए बुला लेता था। उनको केवल दिन की और प्रातःकाल की शिफ्टों में बुलाया जाता था। सामान्यतया मैं किसी अधिकारी को छुट्टी देने से मना नहीं करता था और कई बार अधिकारियों की सुविधा के अनुसार ड्यूटी बदली भी जाती थी। इस कारण सभी अधिकारी मुझसे संतुष्ट रहते थे।
वहाँ सर्वर की देखरेख का मुख्य कार्य टाटा कंसल्टेंसी सर्विस (टी.सी.एस.) नामक कम्पनी द्वारा किया जाता है। उसके कई अधिकारी यहाँ कार्यरत हैं। टी.सी.एस. के अधिकारियों के तीन समूह हैं- सिस्टम, नेटवर्क और विंडोज। हर समूह से कम से कम एक अधिकारी हर समय हमारे केन्द्र पर अवश्य उपस्थित रहता है। मैं इसका बहुत ध्यान रखता था।
दीपांक की प्रोजैक्ट
जिस समय मेरा लखनऊ स्थानांतरण हुआ था, तो दीपांक इंजीनियरिंग के छठे सेमेस्टर में था। सातवें सेमेस्टर में उसे 6 माह का एक प्रोजैक्ट करना था, जो कम्प्यूटर से सम्बंधित होना चाहिए था। मैं यह सोचकर चिन्तित हुआ कि यदि दीपांक को प्रोजैक्ट करने के लिए पंचकूला से बाहर जाना पड़ा, तो उसकी माँ और बहिन को बहुत परेशानी हो जाएगी। इसलिए मेरा प्रयास था कि चंडीगढ़ में ही किसी कम्पनी में उसे प्रोजैक्ट मिल जाये। मेरा ज्यादा कम्पनियों से परिचय नहीं था, फिर भी प्रोजैक्ट किसी भी कम्पनी में हो सकता था। परन्तु प्रोजैक्ट की शर्त यह थी कि उसे कुछ पारिश्रमिक भी मिलना चाहिए था। अधिकांश कम्पनियाँ छात्रों से मुफ्त में प्रोजैक्ट और काम करवाने को तो तैयार हो जाती हैं, लेकिन पारिश्रमिक देने में रोने लगती हैं, जब तक कि उनकी ऊँची पहुँच न हो। मेरी ऐसी पहुँच नहीं थी, इसलिए मैंने सोचा कि हमारे बैंक में ही प्रोजैक्ट हो जाये, तो अच्छा रहेगा।
पंचकूला के सहायक महाप्रबंधक श्री नागेश्वर राव ने इसमें हमारी बहुत सहायता की तथा नाम मात्र के पारिश्रमिक पर केवल तीन माह के प्रोजैक्ट की अनुमति प्रधान कार्यालय से मिल गयी। हमने सोचा कि तीन माह करा लेते हैं, बाकी अवधि के बारे में फिर सोचा जाएगा। इस प्रोजैक्ट में दीपांक के साथ ही उसका एक सहपाठी मित्र गगन दीप सिंह भी था। उसका एक तीसरा मित्र भी इसी प्रोजैक्ट में आना चाहता था, परन्तु बैंक से केवल दो की अनुमति मिली। इसलिए दीपांक और गगनदीप सिंह ने श्री राव साहब के निर्देशन में प्रोजैक्ट प्रारम्भ कर दिया।
राव साहब ने दीपांक की रुचि और जानकारी के अनुसार एक ऐसा पैकेज बनाने का प्रोजैक्ट दिया, जिसकी सहायता से इस संस्थान में तथा बैंक के अन्य संस्थानों में होने वाले प्रशिक्षण कार्यक्रमों की आॅन-लाइन माॅनीटरिंग यानी देखभाल की जा सके। इसमें प्रशिक्षणार्थियों के नामांकन से लेकर उनकी उपस्थित देने और प्रमाणपत्र जारी करने तक के कई कार्य शामिल होने थे। यह प्रोजैक्ट दीपांक और गगनदीप ने इतनी कुशलता से कम समय में ही पूरा कर दिखाया कि श्री राव साहब बहुत प्रभावित हुए। वे संस्थान में आने वाले प्रत्येक उच्च अधिकारी के सामने इस पैकेज का प्रदर्शन कराते थे और उनसे सुझाव माँगते थे। उन सुझावों के अनुसार पैकेज को सुधारा जाता था। अन्त में पूरी तरह संतुष्ट होने पर पैकेज को आॅन-लाइन ही नहीं लाइव कर दिया गया।
यह पैकेज उन्होंने पीएचपी नामक साॅफ्टवेयर में तैयार किया था, जिसका ज्ञान उस समय संस्थान के किसी अधिकारी को नहीं था। दीपांक के जाने के बाद इसका रखरखाव करने की समस्या हो जाती। इसलिए राव साहब ने भविष्य के बारे में सोचकर दीपांक से कहा कि यह साॅफ्टवेयर संस्थान के अधिकारियों को सिखा दो। तब दीपांक ने नियमित कक्षाएँ लेकर संस्थान के अधिकारियों को यह साॅफ्टवेयर सिखाया। इसी बीच राव साहब ने उसके प्रोजैक्ट को 3 माह बढ़वा दिया। इससे मेरी चिन्ता खत्म हुई और संस्थान का भी लाभ हुआ। उन तीन महीनों का हालांकि दीपांक और गगनदीप को कोई पारिश्रमिक नहीं मिला, लेकिन राव साहब ने अधिकारियों को पढ़ाने के बदले उन्हें अतिथि संकाय (गेस्ट फैकल्टी) मानकर कुछ मानदेय दे दिया। यह राव साहब की महानता ही कही जाएगी।
अपने जीवन की छोटी से छोटी बात भी विस्तार से याद रख पाना अपने आप में अद्भुत है। मानना पड़ेगा आपको, सिंघल साहब।
धन्यवाद, बंधु !
विजय भाई , आज की किश्त भी बहुत अच्छी लगी .
आभार, भाईसाहब !
नमस्ते एवं धन्यवाद श्री विजय जी। आज की क़िस्त के तीनो खंड रुचिकर एवं ज्ञानवर्धक लगे। आपके पुत्र दीपांक की योग्यता को देखकर मन प्रसन्न हुवा। ईश्वर से उसके लिए कोटिशः शुभकामनायें हैं।
प्रणाम, मान्यवर ! योग्य संतानों का होना प्रभु की कृपा और गुरुजनों के आशीर्वाद का फल है। आपका हार्दिक आभार !
धन्यवाद श्री विजय जी। आपका कथन सर्वथा सत्य है। ईश्वर व आचार्यों के साथ माता-पिता प्रदत्त संस्कार एवं परिवेश भी इसमें सम्मिलित है। सादर।