गजल
दो जवाँ दिलों का ग़म दूरियाँ समझती हैं
कौन याद करता है हिचकियाँ समझती हैं
तुम तो ख़ुद ही क़ातिल हो, तुम ये बात क्या जानो,
क्यों हुआ मैं दीवाना बेड़ियाँ समझती हैं
बाम से उतरती है वो अप्सरा बन के जभी
जिस्म की नज़ाक़त को सीढ़ियाँ समझती हैं
यूँ तो सैर-ए-गुलशन को कितने लोग आते हैं
फूल कौन तोड़ेगा ये डालियाँ समझती हैं
जिसने कर लिया दिल में पहली बार में ही घर
उसको मेरी आँखों की पुतलियाँ समझती हैं
— भरत मल्होत्रा
उम्दा गज़ल
बहुत शानदार गजल !