न कहता है,इन चरणों को नित्य पखारूं…
निराकार बेडोल, यूं ही मिट्टी का ढेला।
फिरता यूं ही मूढ, जगत में रेला रेला॥
गर देकर के ज्ञान, ना तुमने तारा होता।
कच्चे घट जैसा, ना मुझे संवारा होता॥
मेरे नयनो को ना सत्य, जो आप दिखाते।
जाने किन छलचंदों में, ये नेह समाते॥
कर्म ज्योति का दीप जगाकर, मन में गुरुवर।
बता दिया क्या सत्य असत्य है, क्या है गिरधर॥
मानव मूल्य सिखा,भारी उपकार किया है।
मेरे जीवन को सचमुच, भव तार दिया है॥
गुरु दक्षिणा दे पाऊं, इस योग्य नही हूं।
तुमरी चरण धूलिका सम भी योग्य नही हूं॥
मन कहता है,इन चरणों को नित्य पखारूं।
कर वंदन नित, शीष झुकाऊं कर्ज उतारूं॥
सतीश बंसल
बहुत ही सुंदर बात कही आपने अपनी रचना में |
गहन भाव |
आभार शशी जी…