आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 48)
संघ कार्य
मैं चाहे देश के किसी भी भाग में रहूँ, संघ के कार्यकर्ताओं के सम्पर्क में सबसे पहले आ जाता हूँ। लखनऊ तो मेरा पुराना कार्यक्षेत्र रहा है, इसलिए अनेक स्वयंसेवक बंधु मेरे पूर्व परिचित हैं। विश्व संवाद केन्द्र, जहाँ मैं ठहरा था, लखनऊ में संघ के चार प्रमुख केन्द्रों में से एक है। वहाँ नियमित तौर पर स्वयंसेवकों तथा कार्यकर्ताओं की बैठकें हुआ करती हैं और वर्ग भी लगा करते हैं, जिनमें अनेक प्रचारक बंधु भी भाग लेते हैं। लखनऊ के अधिकांश प्रचारकों से मेरा पूर्व परिचय था, शेष से यहाँ आने पर हो गया। मा. कृपा शंकर जी यहाँ के प्रान्त प्रचारक हैं, वे मुझे बहुत स्नेह करते हैं। अन्य प्रचारकों के अतिरिक्त सह प्रान्त प्रचारक मा. मुकेश जी खांडेकर और प्रांतीय बौद्धिक प्रमुख मा. संजय कुमार मिश्र जी से मेरा परिचय यहीं आने पर हुआ। बीच-बीच में ऐसे प्रचारक भी लखनऊ आते रहते हैं, जिनका केन्द्र कहीं और है। वे विश्व संवाद केन्द्र में आते थे, तो मेरा परिचय उनसे भी कराया जाता था।
विश्व संवाद केन्द्र में प्रातः 6 बजे भूमितल पर स्थित अधीश सभागार में शाखा लगती है। प्रारम्भ में केवल एक पुजारी जी शाखा लगाते दिखाई देते थे। फिर मैं नियमित आने लगा। मैं जो योग क्रियायें पंचकूला में करता और कराता था, वे ही यहाँ करने लगा और जो शाखा आते थे उनको भी कराने लगा। धीरे-धीरे शाखा में 8-10 व्यक्ति नियमित आने लगे। जब गर्मियों के दिन होते थे, तो कभी-कभी केन्द्र की खुली छत पर शाखा लगायी जाती थी। उस छत पर किसी राज मिस्त्री की लापरवाही से जगह-जगह सीमेंट के छोटे-छोटे टीले बने हुए थे, जो पैरों में बहुत चुभते थे और बहुत खराब भी लगते थे। मैंने थोड़ा-थोड़ा रोज खुरचकर कुछ ही दिनों में वे सारे टीले साफ कर दिये, जिससे छत बहुत अच्छी लगने लगी थी।
विश्व संवाद केन्द्र का कार्य
विश्व संवाद केन्द्र में एक पुस्तकालय भी है। जब तक मा. अधीश जी जीवित थे (उनका देहान्त कैंसर के रोग से सन् 2007 में हो गया था), तब तक वे स्वयं इसकी देखभाल करते थे। उनके बाद यह लावारिस सा हो गया। पहले यह प्रथम तल पर बने हुए हाॅल में था। लेकिन जब उस तल पर कक्षायें लगाने के लिए व्याख्यान-कक्ष बने, तो पुस्तकालय को नीचे के हाल में एक किनारे पर शिफ्ट कर दिया गया। इस प्रक्रिया में सारी पुस्तकों की व्यवस्था गड़बड़ हो गयी। उस पर तुर्रा यह कि पुस्तकों की कोई सूची अमरनाथ जी के पास उपलब्ध नहीं थी। वह बहुत बाद में पुस्तकों के ढेर में पड़ी मिली। पुस्तकालय की सैकड़ों पुस्तकें भी गायब थीं और उनका कोई वर्गीकरण भी नहीं था। इसलिए मैंने पुस्तकों को वर्गीकृत करने और नयी सूची बनाने का निश्चय किया।
यह कार्य बहुत लम्बा होता है। मा. अमरनाथ जी ने मुझसे कहा कि मैं कार्यालय से एक सप्ताह का अवकाश लेकर यह कार्य पूरा कर दूँ। मैंने जबाब दिया कि यह कार्य एक या दो सप्ताह में होने वाला नहीं है, बल्कि कई महीने का है। इसलिए मैं आॅफिस के समय के अलावा समय देकर धीरे-धीरे पूरा कर दूँगा, क्योंकि यहाँ मैं एक साल रहने आया हूँ। अपने वचन के अनुसार मैंने सभी पुस्तकों को वर्गीकृत किया, उन पर नये नम्बर डाले और वर्गीकरण के अनुसार अलमारियों में व्यवस्थित किया। इस कार्य में मुझे विश्व संवाद केन्द्र में ही रह रहे एक स्वयंसेवक श्री बृज नन्दन यादव का बहुत सहयोग मिला। मैं प्रायः 50-100 पुस्तकों पर एक बार वर्गीकरण संख्या डाल जाता था और मेरे कार्यालय जाने के बाद वे अन्य स्थानों पर वही संख्या डाल देते थे और रजिस्टर में चढ़ा देते थे। शाम को आकर मैं उनको यथा स्थान अलमारियों में रख देता था। वैसे मैं समय मिलने पर स्वयं भी ये सभी कार्य करता था।
जब मैं कानपुर में था तो मैं वहाँ के विश्व संवाद केन्द्र के बुलेटिन को कम्प्यूटर पर तैयार करता था। यहाँ लखनऊ में भी एक बुलेटिन निकाला जाता था। मेरे आने से पूर्व श्री मनोज श्रीवास्तव ‘मौन’ इस बुलेटिन को तैयार कर देते थे। जब मैं आ गया, तो यह कार्य भी मैंने ले लिया। मुझे इस कार्य का अच्छा अनुभव था, इसलिए पहले से काफी अच्छा बुलेटिन निकलने लगा। आवश्यक होने पर मैं लेख भी लिख लेता था और कई बार ‘खट्ठा-मीठा’ नाम से व्यंग्य लेख भी लिखा करता था। जब तक मैं विश्व संवाद केन्द्र में रहा, बुलेटिन नियमित निकलता रहा। लेकिन जैसे ही मैंने विश्व संवाद केन्द्र छोड़ा और किराये के मकान में गया, तो बुलेटिन अनियमित हो गया। मौन जी भी निष्क्रिय से हो गये थे।
वैसे विश्व संवाद केन्द्र, लखनऊ के पास समर्पित कार्यकर्ताओं की कमी नहीं है। यहाँ हर गुरुवार को कार्यकर्ताओं की साप्ताहिक बैठक होती है। उसमें 15-20 संख्या हो जाना मामूली बात थी। कई बहुत समर्पित कार्यकर्ता हैं। डा. आर. के. साहू एक सरकारी अस्पताल में होम्योपैथिक डाक्टर हैं। वे बुलेटिन के लिए समाचार समीक्षा तैयार करते थे और मैं उन्हें कम्प्यूटर में प्रविष्ट करके बुलेटिन में लगा देता था। मुझे हिन्दी टाइपिंग का अच्छा अभ्यास है, वह यहाँ बहुत काम आया। संयोग से जब तक मैं विश्व संवाद केन्द्र में रहा, मेरे पास किसी किताब को लिखने का आदेश नहीं था। इसलिए मैं अपना लगभग पूरा खाली समय केन्द्र के कार्य में ही लगा देता था।
मैंने समय-समय पर कई लोगों को कम्प्यूटर पर कार्य करना भी सिखाया। जो लोग पहले कम जानते थे उनको और अधिक जानकारी दी। इससे कभी-कभी मेरी अनुपस्थिति में भी बुलेटिन का काफी कार्य कर लिया जाता था।
महामना मालवीय मिशन
महामना मालवीय मिशन के कार्यकर्ताओं को मेरे लखनऊ आने पर बहुत प्रसन्नता हुई। मैं लगभग 21 वर्ष बाद लखनऊ में रहने के लिए आया था। लखनऊ छोड़ने से पहले मैं मिशन का प्रमुख कार्यकर्ता था और सहकोषाध्यक्ष भी था। महामना बाल निकेतन की देखभाल भी मैं ही किया करता था। इसका विस्तृत उल्लेख मैं अपनी आत्मकथा के दूसरे भाग ‘दो नम्बर का आदमी’ में कर चुका हूँ। फिर से लखनऊ आने पर सभी कार्यकर्ताओं को आशा हुई कि मैं पुनः सक्रिय हो जाऊँगा। मैंने उनको निराश नहीं किया और शीघ्र ही न केवल बाल निकेतन समिति में शामिल होकर उसकी व्यवस्था देखने लगा, बल्कि मिशन के सहकोषाध्यक्ष का दायित्व भी सँभाल लिया।
महामना मालवीय मिशन की स्थिति उस समय मुझे बहुत विचित्र सी लगी। उसके अधिकांश ही नहीं लगभग सभी कार्यकर्ता बूढ़े हो गये थे। अधिकांश अपनी-अपनी सेवाओं से अवकाश प्राप्त कर चुके थे और शेष एक-दो वर्ष में अवकाश प्राप्त करने वाले थे। उदाहरण के लिए, सर्वश्री प्रभु नारायण जी श्रीवास्तव, रमेन्द्र नाथ वर्मा, उकिल जी, शान्त जी, अस्थाना जी, प्रभाकर भाटे, सी.सी. गुप्ता आदि अवकाश ग्रहण कर चुके थे और गोविन्द राम अग्रवाल तथा विष्णु कुमार गुप्त अवकाश प्राप्त करने वाले थे। आश्चर्य यह था कि पुराने कार्यकर्ताओं का स्थान लेने के लिए कोई भी नया और युवा कार्यकर्ता मिशन में शामिल नहीं हुआ था। बीस साल पहले जब मैंने लखनऊ छोड़ा था तब मैं प्रमुख कार्यकर्ताओं में सबसे छोटा था और बीस साल बाद भी मिशन के प्रमुख कार्यकर्ताओं में सबसे कम उम्र का मैं ही था। लेकिन सन्तोषजनक बात यह थी कि सभी पुराने कार्यकर्ता तब भी सक्रिय थे और मिशन की योजनायें सुचारु रूप से चल रही थीं। मिशन का प्रमुख प्रकल्प महामना बाल निकेतन भी चल रहा था।
मैंने बाल निकेतन के पुराने छात्रों के बारे में जानकारी ली, तो पता चला कि उनमें से कई व्यवस्थित हो चुके हैं। श्री रमेश जायसवाल (बड़ा रमेश) गौतम बुद्ध तकनीकी विश्वविद्यालय में लिपिक के रूप में सेवारत थे, उनका दो साल बाद किसी बीमारी से देहान्त हो गया। श्री रमेश कुमार (छोटा रमेश) एक प्राइवेट कम्पनी में वेब डिजायनर हैं। लखनऊ में ये दो ही थे। शेष अन्य स्थानों में सेवारत हैं। छात्रावास में रह रहे छात्रों में से एक छात्र श्री सुरेश कुमार का चयन मेरे सामने ही उ.प्र. पुलिस में हुआ और पहले वे मैनपुरी जिले में किसी थाने में पदस्थ थे और अब लखनऊ में ही हैं। इन सभी से मेरा सम्पर्क बना रहता है।
विजय भाई , आज का परसंग भी अच्छा लगा ,जितनी हिमत्त आप में है बहुत कम लोगों में है और ख़ास कर छोटी छोटी बात को लिखना बहुत अच्छा लगता है .
नमस्ते, भाई साहब. कई बार छोटी छोटी बातें ही मिलकर बड़ी बन जाती हैं. इसलिए मैं हर महत्वपूर्ण बात को लिख देता हूँ चाहे कितनी भी छोटी हो. आपको धन्यवाद.
नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री विजय जी। आज की क़िस्त में वर्णित सभी प्रसंगो को ध्यान से पढ़ा। आपका एक राष्ट्रवादी संस्था आरएसएस से जुड़ा होना और उसे अपनी सेवाएं देना आज के समय में प्रशंसनीय एवं प्रेरणादायक है। मेरे युवावस्स्था के दो मित्र श्री तरुण विजय (सांसद ) एवं श्री नरेश कुमार बंसल आरएसएस से जुड़े थे। आज यह अपने पुरुषार्थ से बहुत आगे बढ़ गए है। यह देख व सोच कर प्रसन्नता होती है। आपकी सेवा भावना के लिए आपको नमन।
प्रणाम, मान्यवर ! आभार ! संघ से जुड़े रहने का मुझे गर्व है. संघ में मेरी आस्था कभी नहीं डिगी, तब भी नहीं जब सभी कार्यकर्त्ता हताश से हो गए थे.
धन्यवाद श्री विजय जी।
छोटी से छोटी बातों को याद रख लेखन करना बड़ी बात है
धन्यवाद, बहिन जी ! प्रसंग के अनुसार बातें याद आ जाती हैं. उनको लिख देता हूँ. कभी कोई बात छूट जाती है तो बाद में याद आने पर लिख देता हूँ.