गजल
कोशिश कर भी लो आदत खानदानी नहीं जाती,
चोर चोरी से जाए पर बेईमानी नहीं जाती,
खज़ाने खत्म हुए सारे जागीरें लुट गईं लेकिन,
मिजाज़ों से अब भी उनके सुल्तानी नहीं जाती,
पा सकते थे हम मंज़िल अगर वो साथ देते तो,
मगर हर बात पर उनकी आनाकानी नहीं जाती,
कहने को यहां यूँ तो सब फरज़ंद हैं अपने,
कोई भी बात अपनी पर यहां मानी नहीं जाती,
बंट जाता है सब पैसा नेता और दलालों में,
गरीबों तक हुकूमत की मेहरबानी नहीं जाती,
जिन्हें समझा था मैंने अपनी सब परेशानियों का हल,
उन्हीं की अब मेरे सर से परेशानी नहीं जाती,
— भरत मल्होत्रा।
सही बात
बंट जाती है नेताओं दलालों के बीच
कोई चाह कर भी नहीं रोक सकता
उम्दा लेखन