कविता

कविता

कवि के अंतर्मन से निकली,
कविता भी रूठ जाती है कभी,
अपने ही रचयिता से,
बिल्कुल उसी तरह जैसे,
छोटा सा बच्चा रूठ जाता है,
कभी-कभी अपनी माँ से,
झूठ-मूठ का, लाड में,
पर उस रूठने में भी,
उसका प्यार छुपा होता है,
और माँ,
कभी मनाती है,
कभी मनुहार करती है,
कभी खुद रूठ जाती है,
कभी डाँटती है लेकिन,
सहेज लेती है उन पलों को,
अपने मन के किसी कोने में,
क्योंकि वो जानती है कि,
फिर लौट के ना आएँगे ये पल,
और एक दिन ये पल ही बनेंगे,
उसके जीने का सहारा,
ठीक उसी तरह कवि भी,
खेलता है शब्दों से,
कभी रूठता है उनसे,
कभी मनाता है लेकिन,
संभाल कर रख लेता है,
शब्दों को किसी डायरी में,
और शब्द वहीं पड़े रहते हैं,
अनंतानंत काल तक,
हर बार निकलता है उनसे,
नया अर्थ नया दृष्टिकोण ,
क्योंकि इस नाशवान जगत में,
बस अक्षर ही तो हैं,
जो कभी मरते नहीं,
जिनका कभी क्षय नहीं होता,

आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।

*भरत मल्होत्रा

जन्म 17 अगस्त 1970 शिक्षा स्नातक, पेशे से व्यावसायी, मूल रूप से अमृतसर, पंजाब निवासी और वर्तमान में माया नगरी मुम्बई में निवास, कृति- ‘पहले ही चर्चे हैं जमाने में’ (पहला स्वतंत्र संग्रह), विविध- देश व विदेश (कनाडा) के प्रतिष्ठित समाचार पत्र, पत्रिकाओं व कुछ साझा संग्रहों में रचनायें प्रकाशित, मुख्यतः गजल लेखन में रुचि के साथ सोशल मीडिया पर भी सक्रिय, सम्पर्क- डी-702, वृन्दावन बिल्डिंग, पवार पब्लिक स्कूल के पास, पिंसुर जिमखाना, कांदिवली (वेस्ट) मुम्बई-400067 मो. 9820145107 ईमेल- [email protected]

2 thoughts on “कविता

  • और शब्द वहीं पड़े रहते हैं,
    अनंतानंत काल तक,
    हर बार निकलता है उनसे,
    नया अर्थ नया दृष्टिकोण ,
    क्योंकि इस नाशवान जगत में,
    बस अक्षर ही तो हैं,
    जो कभी मरते नहीं,
    जिनका कभी क्षय नहीं होता, वाह वाह!

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    सत्य
    सुंदर रचना

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