कविता
कवि के अंतर्मन से निकली,
कविता भी रूठ जाती है कभी,
अपने ही रचयिता से,
बिल्कुल उसी तरह जैसे,
छोटा सा बच्चा रूठ जाता है,
कभी-कभी अपनी माँ से,
झूठ-मूठ का, लाड में,
पर उस रूठने में भी,
उसका प्यार छुपा होता है,
और माँ,
कभी मनाती है,
कभी मनुहार करती है,
कभी खुद रूठ जाती है,
कभी डाँटती है लेकिन,
सहेज लेती है उन पलों को,
अपने मन के किसी कोने में,
क्योंकि वो जानती है कि,
फिर लौट के ना आएँगे ये पल,
और एक दिन ये पल ही बनेंगे,
उसके जीने का सहारा,
ठीक उसी तरह कवि भी,
खेलता है शब्दों से,
कभी रूठता है उनसे,
कभी मनाता है लेकिन,
संभाल कर रख लेता है,
शब्दों को किसी डायरी में,
और शब्द वहीं पड़े रहते हैं,
अनंतानंत काल तक,
हर बार निकलता है उनसे,
नया अर्थ नया दृष्टिकोण ,
क्योंकि इस नाशवान जगत में,
बस अक्षर ही तो हैं,
जो कभी मरते नहीं,
जिनका कभी क्षय नहीं होता,
आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।
और शब्द वहीं पड़े रहते हैं,
अनंतानंत काल तक,
हर बार निकलता है उनसे,
नया अर्थ नया दृष्टिकोण ,
क्योंकि इस नाशवान जगत में,
बस अक्षर ही तो हैं,
जो कभी मरते नहीं,
जिनका कभी क्षय नहीं होता, वाह वाह!
सत्य
सुंदर रचना