बोलो मंगल कैसे गाऊं…
रोती है दिनरात जहां मानवता, कैसे खुशी मनाऊं।
हर आंगन गम के आंसू है, बोलो मंगल कैसे गाऊं॥
सिसकी की आवाजें सुनता हूं, मासूम फरिश्तों की।
तुम्ही बताओ इस पीडा को सहकर मैं कैसे मुस्काऊं॥
हर आंगन गम के आंसू है, बोलो मंगल कैसे गाऊं……
नोच रहें है कलियों को, खिलने से पहले ही सैयाद।
तुम्ही बताऔ कैसे गुलशन में, खुशियों के फूल खिलाऊं॥
हर आंगन गम के आंसू है, बोलो मंगल कैसे गाऊं….
दर दर गलियों में ठोकर, खातें है जीवन देने वाले।
तुम्ही बताऔ पिण्ड दान को, कैसे मुक्ति मार्ग बताऊं॥
हर आंगन गम के आंसू है, बोलो मंगल कैसे गाऊं….
पी लेती है जहर जिन्दगी के, चुपचाप लबों को सिल कर।
मर्यादा की खातिर घुटती, श्रृष्ठा को कैसे समझाऊं॥
हर आंगन गम के आंसू है, बोलो मंगल कैसे गाऊं….
जिस मां की छाती पर रोज, लहु के छींटे पडतें हो।
उस मां के चेहरे पर बोलों, सुख के भाव कहां से लाऊं॥
हर आंगन गम के आंसू है, बोलो मंगल कैसे गाऊं….
सतीश बंसल
वास्तव में सतीश जी मैं आपसे अत्यधिक
प्रभावित हूँ..
जिस मां की छाती पर रोज, लहु के छींटे पडतें हो।
उस मां के चेहरे पर बोलों, सुख के भाव कहां से लाऊं॥
हर आंगन गम के आंसू है, बोलो मंगल कैसे गाऊं….
हृदय स्पर्शी रचना
बहुत आभार वैभव जी…
मन के उदगार है
व्यक्त कर लेता हूं…