मेरी कहानी 60
सुबह उठे , खाना खाया और कोच की इंतज़ार करने लगे। कुछ देर बाद जब कोच आ गई तो हम ने अपना सारा सामान कोच में रखा और ट्रेन स्टेशन की ओर चल पड़े। दिली ट्रेन स्टेशन के बाहर तब इतनी भीड़ भाड़ नहीं होती थी और स्टेशन के आगे बहुत खुली जगह होती थी। धीर और टंडन साहब ने टिकट लिए और प्लेटफार्म पर खड़ी गाड़ी में बैठ गए। कितने वजे यह गाड़ी चली याद नहीं लेकिन हम सब ताज महल देखने के लिए उत्सक थे। शेयरो शायरी शुरू हो गई थी और जोक्स भी सुनाने लगे थे। एक लड़का था अमर सिंह जो बहुत शरारती और निडर होता था। इस के बारे में जब मैं इंग्लैण्ड आ गया था तो बहुत कुछ सुनने को मिला था। यह लड़का वकालत करने लगा था और कुछ देर बाद अपने गाँव का सरपंच भी बन गिया था ।
याद नहीं कितने घंटे लगे होंगे लेकिन पहले हम मथुरा आये थे। कहते थे मथुरा के पेड़े बहुत प्रसिद्ध थे। टंडन साहब ने एक डिब्बा पेड़े लिए थे और हम सब को खिलाये। शाम को हम आगरा पहुंच गए। रहने के लिए किसी ने एक धर्मशाळा के बारे में बताया था तो हम वहां पौहंच गए। इस धर्मशाळा में काफी कमरे थे। याद नहीं कितने कमरे हम को मिले लेकिन यहां सफाई बिलकुल नहीं थी , चारों ओर कमरे और उन के ऊपर चुबारे थे ,मिडल में छोटा सा आँगन था और नहाने के लिए एक नल था। धर्मशाला के बाहर एक छोटा सा टी स्टाल था। यह जगह कहाँ थी ,अब है या नहीं मुझे पता नहीं लेकिन यह हमें मुफ्त में मिल गई थी और हमारे पैसे बच गए थे।
कुछ देर आराम करके हम आगरा शहर को देखने चल पड़े . हम बहुत घूमे लेकिन आगरा हमें फगवारे जैसा ही लगा ,कोई ख़ास बात नहीं दिखी . एक बहुत तंग बाज़ार था . हलवाइओं की दुकाने काफी थीं और इन दुकानों के ऊपर दुसरी मंज़िल पर औरतें खड़ी थीं जो आते जाते ग्राहकों को देख कर इशारे करती थीं। टंडन साहब ने हम को वार्निंग दी कि ऊपर को औरतों की तरफ हम देखें नहीं और ना ही कोई इशारा करें क्यों कि वोह वेश्यायें थी। हम ने तो सिर्फ किताबो में ही वेश्याओ के बारे में पड़ा था और आज यह भी देख लिया था और हमें बहुत घृणित लगा। जल्दी जल्दी टंडन साहब हम को वहां से बाहर ले आये. इस के बारे में कोई नहीं बोला। कुछ दूर जा कर एक साफ़ हलवाई की दूकान में प्रोफेसर साहब हम को ले गए और हमें पेठा खिलाया गिया जो बहुत स्वादिष्ट लगा। यहां ही बैठ कर सुबह को ताज महल देखने का प्रोग्राम बनाया गिया। देर रात तक हम शहर में घुमते रहे और वापस धर्म शाळा में आ गए।
सुबह उठ कर नहाया और और एक छोटे से होटल में खाना खाया और पैदल ही ताज महल देखने चल पड़े जो बहुत दूर नहीं था। कोई सफाई नहीं थी और लगता ही नहीं था कि हम ताज महल के नज़दीक आ गए हैं। तब ही पता चला जब हम ताज महल में जाने के लिए बड़े से दरवाज़े में टिकट लेने के लिए खड़े हो गए। यह बहुत बड़ी बिल्डिंग थी जो लाल पत्थर से बनी हुई थी। मुझे इस का नाम नहीं मालूम लेकिन जैसे ही हम इस की दुसरी ओर गए तो सामने ताज महल दिखाई दिया। जो ताज महल की तस्वीर किताबों में देखते आये थे ,अब हमारे सामने था। धीरे धीरे हम आगे बड़ने लगे और टंडन साहब बताये जा रहे थे कि चांदनी रात को जब ताज का अकस इस पानी में दीखता था तो बहुत सुन्दर नज़ारा नज़र आता था। जब हम नज़दीक पौहंच गए तो पहले अपने जूते उतारे और छोटी सी सीढियाँ चढ़ कर ऊपर गए तो मार्बल का फर्श देख कर ही हैरान हो गए। अब हम आगे जाते गए और इस की सुंदरता देख कर दंग रह गए।
फिर टंडन साहब एक एक चीज़ को समझा रहे थे। उन्होंने समझाया कि जितने भी रंग बिरंगे फूल दिख रहे हैं वोह पेंटिंग नहीं है बल्कि ब्रीक पत्थरों को काट काट के इस में भरा गिया था ,यही इसकी खासियत थी। एक एक फूल और उन की पत्तीओं को हम ध्यान से देखने लगे। इस के भीतर गए ,छत की तरफ देखा ,दीवारों को देखा ,कैलीग्राफी को देखा तो बहुत हैरानी हुई। नीचे गए और शाहजहाँ और मुमताज़ की कब्रें देखीं जो उस वक्त सही कबर दिखाते थे ,अब तो सुना है उन कब्रों का रैपलिका ही है जानी असली कब्रों को नहीं दिखाते। उस वक्त यह कब्रें जिस जगह थी ,उस जगह बहुत अँधेरा था। ज़्यादा से ज़्यादा पांच मिनट हम वहां रहे होंगे और हम बाहर ऊपर आ गए। बाहर आ कर सभी प्रोफेसर बातें करने लगे कि जितना पैसा ताज़ महल को बनाने में खर्च हुआ वोह गरीबों का खून ही तो था ,पता नहीं इस को बनाते बनाते कितने लोग मर गए होंगे। संस्कृत के प्रोफेसर हंस पड़े और बोले ,” जितना पैसा खर्च हुआ ,अब वापस भी तो आ रहा है ,क्योंकि इतने लोग इसे देखने आते हैं और टिकट ले कर इसे देखते हैं “.
एक घंटे बाद हम वापस चलने लगे। बाहर आये तो आगे का प्रोग्राम दियाल बाग़ देखने का था। वहां कैसे पुहंचे याद नहीं लेकिन उस वक्त दियाल बाग़ अभी बन रहा था। जगह जगह पत्थर बिखरे पड़े थे। गाइड ने उस वक्त हमें बताया था कि जब यह मुक़्क़मल हों जाएगा तो ताज़ महल से भी अच्छा बनेगा। फिर उस ने एक बात बताई थी कि इस बिल्डिंग की यह खूबी होगी कि इस में जो भी फूल बनेगा उस को दुबारा कहीं नहीं बनाया जाएगा ,कहाँ तक यह सच्च था हमें मालूम नहीं क्योंकि हम दुबारा वहां गए ही नहीं। यह जगह राधास्वामी धर्म के छठे गुरु जी ने बनानी शुरू की थी और आम लोगों ने इस को बनाने में अपना योगदान बहुत दिया था। मेरे छोटे भाई और उस की धर्म पत्नी ने राधास्वामी गुरु जी से नाम लिया हुआ है और वोह बिआस तो जाते ही रहते हैं लेकिन वोह आगरे दियाल बाग़ भी गए थे और बताते थे कि अब तो वहां बहुत ही विशाल बिल्डिंग बन गई है और इन के नाम से बहुत इंस्टीच्उशंज़ चल रही हैं और हस्पताल भी है जिस में लोगों का मुफ्त इलाज किया जाता है। उस समय तो हम ज़्यादा देर नहीं रुके क्योंकि जितना बन गया था वोह तो बहुत सुन्दर दिखाई देता था लेकिन जगह जगह कटे हुए पत्थरों के ढेर लगे हुए थे।
इस के बाद ही हम आगरा फोर्ट देखने चल पड़े। आगरा फोर्ट में हमें कई घंटे लग गए ,दीवाने आम दीवाने ख़ास देखा और जहांगीर का महल भी देखा और ख़ास कर वोह मुसमन्बुर्ज को बहुत दिलचस्पी से देखा जिस में औरंगज़ेब ने अपने बाप शाहजहाँ को कैद कर के रखा था और इसी बुर्ज से ताज महल को देखते देखते उस की मौत हुई थी। इस झरोखे से ताज महल दिखाई देता है और गाइड ने हमें एक छोटा सा शीशा दीवार में लगा हुआ दिखाया था जो मुश्किल से एक इंच स्कवायर होगा। इस की एक तरफ खड़े हों तो इस में ताज महल का अकस दिखाई देता है। बताते थे कि यह किला पहले ईंटों से बना हुआ होता था जो किसी राजपूत राजे का था। मेहमूद ग़ज़नवी ने राजे को हरा कर इस पर कब्ज़ा किया था। बाबर हमाँयू शेर शाह सूरी भी यहां रहे और अकबर ने तो इसे राजधानी बना लिया था। इस किले में हम बहुत घुमते रहे और दूसरे दिन हमारा प्रोग्राम था फतेहपुर सीकरी देखने का।
दूसरे दिन हम फ़तेह पर सीकरी देखने चल पड़े जो आगरे से तकरीबन चालीस किलोमीटर दूर है। जब हम वहां पुहंचे तो पहले बुलंद दरवाज़े की ओर आये जो बहुत ऊंचा है। सीडीआं चढ़ कर हम इस दरवाज़े के भीतर गए। एक तरफ एक मस्जिद थी और यहां ही सलीम चिश्ती की दरगाह थी। इस के भीतर जा कर हम ने देखा यहां सलीम चिश्ती की दरगाह पर चादरें चढ़ाई हुई थीं और लोग जाली के साथ धागे बाँध रहे थे ख़ास कर स्त्रीआं। कहते थे कि अकबर सलीम चिश्ती से दुआ मांगने के लिए सलीम चिश्ती को मिलने आया था और उस की बख्शिश से ही अकबर को बेटे की दात प्राप्त हुई थी जो बाद में जहांगीर बना। इस जगह और कब्रें थीं।
यहां से निकल कर हम ने अकबर के महल देखे जिस में पंच महल की कुछ फोटो लीं। गाइड ने हमें कुछ फिल्मों के नाम भी बताये जिस की शूटिंग इस पंच महल पर हुई थी। एक जगह थी जिस में किले की दीवार पर से कुछ लड़के पैसे ले कर नीचे पानी में छलांग लगाते थे। बीरबल का महल देखा और एक था ऐलिफेन्ट टावर ,यहां भी हम ने फोटो ली। योद्धा बाई का महल और मंदर भी देखा। सारा दिन हम यहां रहे। बहुत कुछ यहां देखा था लेकिन इतना याद नहीं। एक बात याद है कि यहां भूने हुए चने जगह जगह लोग बैठे बेच रहे थे।
टंडन साहब ने बताया कि यह फ़तेह पर सीकरी अकबर ने १५ साल बाद ही छोड़ दी थी और वापस आगरे के किले में आ गिया था शायद यहां पानी की कमी हो गई थी। टंडन साहब ने एक बात और भी बताई थी कि इस सीकरी की जगह पर ही बाबर ने राणा सांगा को हराया था और इस का नाम भी सीकरी से बदल कर फ़तेह पुर सीकरी रख दिया था क्योंकि उस ने राणा सांगा पर फ़तेह पाई थी।
कुछ भी हो हम ने आगरा में बहुत कुछ देखा था और इतने सालों बाद सब कुछ तो याद नहीं लेकिन जो देखा उस को याद करके मज़ा आ जाता है और कभी कभी इस पुरानी एल्बम में फोटो देख कर बीते कॉलेज के दिन याद आ जाते हैं। हम वापस आगरे आ गए और एक होटल से खाना खा कर धर्मशाला में आ गए। दूसरे दिन हम ने जय पुर को जाने का प्रोग्राम बनाया हुआ था। सारे दिन के टूर की बातें करते करते हम सो गए।
चलता ……………………
भाई साहब आपका आगरा का वर्णन मजेदार लगा. आगरा तो मेरा अपना शहर है. वह अब भी ज्यादा नहीं बदला है. दयालबाग का मंदिर अभी भी पूरा नहीं हुआ है.
विजय भाई , दुसरी दफा आगरे मैं शाएद १५ साल पहले गिया था .उस वक्त होटल तो बहुत अछे बने हुए थे लेकिन गंद मुझे अभी भी काफी लगा था .
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। क़िस्त पढ़कर बहुत आनंद की अनुभूति हुई। आज मैंने बिना फ़तेहपुर सीकरी जाए आपकी आँखों से उसके दर्शन किये और कई नई जानकारियां जानी। ताजमहल और लालकिला मैंने देखा हुआ है। दो या तीन बार आगरा गया परन्तु दयालबाग़ नहीं गया था। उसका विवरण लोगो से समय समय पर जो सुना था वही आपसे भी जानकार अच्छा लगा। आपका हार्दिक धन्यवाद।
मनमोहन भाई , हमारी इस यात्रा को तो ५३ साल हो चुक्के हैं लेकिन मेरी आँखों के सामने बहुत से सीन अभी भी उसी तरह है और लिख कर मुझे भी मज़ा आ रहा है .
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद। मनुष्य जीवन क्या है ? सोचने पर लगता है कि शायद यह ज्ञान विज्ञानं सहित जीवन की मधुर स्मृतियों का भंडार भी है। ज्ञान विज्ञान स्वयं, ईश्वर व संसार को जानने व ईश्वर की स्तुति व उपासना के लिए हैं तो स्मृतियाँ व अनुभव ईश्वर प्रदत्त तोफें या उपहार हैं जिनसे मनुष्यों को सुख मिलता है। सादर।
आपकी लेखनी पूरा दिल्ली दर्शन करवा दी
सादर
धन्यवाद बहन जी .