लघुकथा

जुगलबंदी

दो बगुले एक नदी किनारे मछलियाँ पकड़ते थे समझने वाले उन्हें बड़ा विद्वान और तपस्वी भी मानते । नदी किनारे गाय , बकरी , भालू आदि आदि जो भी पानी पीने आता जंगल में जाकर कहता ….. स्वामी जी बड़े तपस्वी हैं।

बगुलों के मन में लड्डू फूटते…………आहा ! कितना मधुर है स्वयं को विद्वान कहलवाना उनमें से एक बगुला बोला ………मुझे पानी में खड़े होकर ज्ञान प्राप्त हो गया है  कल से मैं और अधिक समय दूंगा और ज्ञान प्राप्त करूँगा । दूसरा बगुला हंसा और कहने लगा अरे पानी में भी कोई ज्ञान प्राप्त होता है । मगर बगुला कहाँ मानने बाला था वो सुबह से शाम तक पानी में खड़ा रहता ।

पहले बाले बगुले को बहुत गुस्सा आता उसका मन भी नहीं लगता एक दिन उसने नदी किनारे एक दुकान सजा ली और पोथी वाचना भी चालू किया धीरे धीरे बगुले का नदी किनारे महल तैयार हो गया ।

एक दिन बगुला तपस्या से जागा देख कर दंग रह गया भागा भागा पहुँचा  पूछने लगा ये सब कैसे संभव हुआ मुझे तो चार मछलियाँ नहीं मिलती थीं सो मैंने सोचा तपस्वी ही बन जाऊँ इज्जत मिलेगी और मछलियाँ मिलेंगी व्याज में और तू तो !!

बगुला बोला ये दुनिया ऐसी ही है  यहाँ ज्ञान की नहीं ज्ञानवान की क़द्र है तूने तपस्या की और मैंने उसे वाचा देख तू कहाँ रह गया और मैं कहाँ पहुँच गया।

…………………..कुछ समझे (मन की बात )

— अंशु 

2 thoughts on “जुगलबंदी

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी लघुकथा।

    • अंशु प्रधान

      धन्यवाद आपका सर ! नमस्ते सर ।

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