कविता

अन्नदाता…

तेरी लाचारी के लिये, वक्त भला किसके पास है
दौलत के इस आंगन में, तु तो बस अनचाही घास है।
यहां कौन देखता है, तेरे जुडे हुऐ इन लाचार हाथों को
यहां जिसके पास दौलत है, बस वही खास है॥

लोग कहते हैं तू भूख से नही, प्रेम प्रसंग में आत्महत्या करता है
जीने का तरीका नहीं आता, इसलिये खुद ही मरता है।
सरकार कहती है, पेट नही भरती तो अपनी जमीन उसे दो
फिर तू उसी के लिये, बेममतलब का बखेडा करता है॥

वैसे तो तेरे दानो पर, ये सारी दुनियां पलती है
तु सबका पेट भरता है, और दुनियां तुझी को छलती है।
पूजना चाहिये, तेरे इन अन्न देने वाले हाथों को
पर ये दौलत का दौर है, यहां सिर्फ दौलत की चलती है॥

ऐ दुनियां वालों, मैं तुमसे एक सवाल पूछता हूं
अन्न के बिना, क्या कुछ दिन भी जी पाओगे।
अगर वो नहीं उगायेगा, तो रोटी के टुकडे को तरस जाओगे।
अगली बार जब भी खाना खाओगे, तो उस लाचार चेहरे को याद करना।
और तुम्हारी आत्मा, उसे अन्नदाता माने तो उसकी जिन्दगी की फरियाद करना॥

सतीश बंसल

*सतीश बंसल

पिता का नाम : श्री श्री निवास बंसल जन्म स्थान : ग्राम- घिटौरा, जिला - बागपत (उत्तर प्रदेश) वर्तमान निवास : पंडितवाडी, देहरादून फोन : 09368463261 जन्म तिथि : 02-09-1968 : B.A 1990 CCS University Meerut (UP) लेखन : हिन्दी कविता एवं गीत प्रकाशित पुस्तकें : " गुनगुनांने लगीं खामोशियां" "चलो गुनगुनाएँ" , "कवि नही हूँ मैं", "संस्कार के दीप" एवं "रोशनी के लिए" विषय : सभी सामाजिक, राजनैतिक, सामयिक, बेटी बचाव, गौ हत्या, प्रकृति, पारिवारिक रिश्ते , आध्यात्मिक, देश भक्ति, वीर रस एवं प्रेम गीत.