ग़ज़ल
वो उसके जर्द दर्द को बयां करता गया …
और मैं उसके कलम की रवानी देखती रही
वो शीशा ए दिल तो न था है मुमकिन !
न टूटा न बिखरा वो शख्श फानी देखती रही
ये मरहले है के अज़ाब ज़ेहन से चिपक जाते है
उठ रहा था धुआँ तेरी बदगुमानी देखती रही ।
ये राज़ की बातें नहीं है बस शऊर ए अना
मुकम्मल कौन है फिर भी नूरानी देखती रही ।
बेबसी थी मेरी या के कोई शौक ए जुनूं
दीवानगी में वो शख्स ए रूहानी देखती रही ।
— अंशु प्रधान
ग़ज़ल अच्छी है, पर इसमें उर्दू-फारसी के अप्रचलित शब्दों का प्रयोग खटकता है. उनकी जगह सरल शब्द होने चाहिए. अन्यथा उनके अर्थ देने चाहिए.