गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

वो उसके जर्द दर्द को बयां करता गया …
और मैं उसके कलम की रवानी देखती रही

वो शीशा ए दिल तो न था  है  मुमकिन !
न टूटा न बिखरा वो शख्श फानी देखती रही

ये मरहले है के अज़ाब ज़ेहन से चिपक जाते है
उठ रहा था धुआँ  तेरी बदगुमानी देखती रही ।

ये राज़ की बातें नहीं है बस शऊर ए अना
मुकम्मल कौन है फिर भी नूरानी देखती रही ।

बेबसी थी मेरी या के कोई शौक  ए जुनूं
दीवानगी में वो शख्स ए रूहानी  देखती रही ।

— अंशु प्रधान

One thought on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    ग़ज़ल अच्छी है, पर इसमें उर्दू-फारसी के अप्रचलित शब्दों का प्रयोग खटकता है. उनकी जगह सरल शब्द होने चाहिए. अन्यथा उनके अर्थ देने चाहिए.

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