अथर्ववेद के आलोक में आयुर्वेद विमर्श
शतपथ ब्राह्ममण ने यजुर्वेद के एक मंत्र की व्याख्या में प्राण को अथर्वा बताया है। इस प्रकार प्राण विद्या या जीवन-विद्या आथर्वण विद्या है।1 हमें गोपथ ब्राह्ममण से यह पता चलता है कि ब्रह्म शब्द भेषज और भिषग्वेद का बोधक है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जो अथर्वा है, वह भेषज है, जो भेषज है वह अमृत है, जो अमृत है, वह ब्रह्म है।2 गोपथ ब्राह्ममण से यह भी ज्ञात होता है कि अंगिरस का सम्बन्ध आयुर्वेद ओर शरीर-विज्ञान से है। अंगों के रसों अर्थात् तत्त्वों का जिसमें वर्णन मिलता है, वह अंगिरस कहा जाता है।3 छान्दोग्य और बृहदारण्यक उपनिषदों में भी कहा गया है कि शरीर-विज्ञान और रसायन-विज्ञान अंगिरस विद्या हैं।4 प्राण विद्या को भी अंगिरस-विद्या का नाम दिया गया है। प्राण अंगों के रस हैं। प्राणों के नियमानुसार चलने से ही जीवन है, इसलिए प्राण-विद्या को शतपथ ब्राह्ममण और बृहदारण्यक उपनिषद् में अंगिरस विद्या का नाम दिया गया है।5 चरक और सुश्रुत दोनों ने आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद या उपांग माना है। सुश्रुत संहिता के अनुसार इसके आठ भाग हैं। चरक संहिता का कहना है कि अथर्ववेद में इन विषयों के मंत्र हैं- स्वस्तययन, बलि, मंगल, होम, नियम, प्रायश्चित और उपवास। ये समस्त विषय आयुर्वेद के हैं, अतः हम निश्चयपूर्वक, यह कह सकते हैं कि अथर्ववेद में चिकित्सा का वर्णन है और अथर्ववेद और आयुर्वेद का घनिष्ट सम्बन्ध है।
आयुर्वेद जीवन शास्त्र है- चरक संहिता में कहा गया है कि आयुर्वेद वह शास्त्र है जिससे पुरुष का जीवन अर्थात् आयु शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के रोगों से मुक्त रहता है। उसकी इन्द्रियां ओर इन्द्रियांे के विषय स्वस्थ रहते हुए अपना सारा व्यवहार यथेष्ट रूप से करने के समर्थ बन जाते हैं। इसके अतिरिक्त उसके दुःखी जीवन का भी बोध यह कराता है।6 आयुर्वेद वह शास़्त्र है जो मनुष्य को सदाचार की शिक्षा देता है और उसको दूसरे प्राणियों के साथ सद्व्यवहार के साथ चलने योग्य बनाता है। मानसिक उन्नति के साथ-साथ सुबुद्धि सम्पन्न होकर लोकोपकारक कर्म करते हुए उसका जीवन हितकारी बनाता है और इसके साथ ही अहितकारी जीवन का भी बोध कराता है। आयुर्वेद वह शास्त्र माना गया है जिसके द्वारा आयु का मान ज्ञात किया जा सकता है यह मान ज्ञानेन्द्रियों, मन और बुद्धि के विकृत लक्षणों की उपलब्धियों और अरिष्ठ लक्षणों के उत्पन्न होने से प्राप्त किया जाता है। इस प्रकार जिस ग्रन्थ में आयु सम्बन्धी सभी विषयों का युक्तियुक्त प्रकार से सुन्दर वर्णन किया गया हो, उसे आयुर्वेद कहते हैं।
आयु के चार प्रकार- महर्षि चरक ने कहा है कि मनुष्यों केजीवन एक जैसे नहीं हैं क्योकि वे अपने पूर्वकृत कर्म और इस जन्म में किए गए पौरुष के अनुसार फल भोगते हैं। चरक के अनुसार आयु के चार भेद बताए गए हैं, इनके लक्षण निम्न प्रकार हैं-
1- हितायु7 का लक्षण- सर्वजन हितैषी, निर्लोभ, शान्त, विवेकी, सतत जागरूक, धर्म, अर्थ और काम का सन्तुलन ठीक रखने वाला, पूज्यपूजक, वृद्धजनसेवी, मनोविकार रहित, सहिष्णु, स्मृतिमान् और बुद्धिमान् व्यक्ति ‘हितायु’ होता है।
2- अहितायु का लक्षण- दूसरों का अपकारक, तस्कर, उद्धत, अधार्मिक, निर्धन, अज्ञानी, मनोविकारग्रस्त, विषयासक्त, वासना में लिप्त, असहिष्णु, विेवेकहीन, स्मृतिभ्रष्ट, धृतिभ्रष्ट, बुद्धिभ्रष्ट, द्वेष रखने वाला, क्रोधी, आलसी और कर्तव्याकर्तव्य ज्ञानशून्य व्यक्ति ‘अहितायु’ होता है।
3- सुखायु का लक्षण- शरीर या मानस रोग से मुक्त, युवास्था-सम्पन्न, बल-वीर्य-यश से सम्पन्न, उच्च मनोबल वाला, धन-जन से सम्पन्न, जीवनापयोगी साधनों से सम्पन्न, सन्तुष्ट और स्वतंत्र व्यक्ति ‘सुखायु’ होता है।
4- दुःखायु का लक्षण- रोगी, वृद्ध, असमर्थ, निर्बल, हीन मनोबल वाला, अन्ध, बधिर, परतंत्र और साधनहीन व्यक्ति ‘दुःखायु’ होता है।
आयुर्वेद पुण्यतम वेद है- चारों वेद पारलौकिक फल देने वाले हैं, जब कि आयुर्वेद इसी लोक में फल देने वाला है और पुण्य कार्य होने के कारण परलोक के लिए भी कल्याणकारी होता है। अपनी इस विशेषता के कारण यह अन्य वेदों की भांति महत्त्व रखता है। इसीलिए इसे महर्षि चरक द्वारा पुण्यतम वेद कहा गया है।
रोगों की उत्पत्ति के कारण- रोगों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में चरक संहिता में निम्न सूत्र दिया गया है-
यदा ह्यस्मिन् शरीरे धातवो वैषम्यमापद्यन्ते तदा क्लेशं विनाशं वा प्राप्नोति।
वैषम्यगमनं हि पुनर्धातूनां वृद्धि ह्रास गमनम्।।
अर्थात् जब षड्धातु पुरुष के शरीर के धातुओं में विषमता आ जाती हे। कोई धातु बढ़ जाता है और कोई घट जाता है तो इस प्रकार की विषमता से शरीर रोगग्रस्त हो जाता है। अथवा नाश को प्राप्त होता जाता ह। इससे सिद्ध होता है कि शरीर में धातुओं कर विषमता आ जाने से रोग उत्पन्न हो जाते हैं। रोगों के निदान के सम्बन्ध में आगे लिखा गया है-
‘‘तदेवतस्माद्भेषजंसम्यगवचर्यमाणं युगपन्न्यूनातिरिक्तानां धातूनां साम्यकरं
भवति, अधिकमप कर्षति न्यूनं आप्याति।’’
अर्थात् उचित रूप से विचार पूर्वक ओषधि के प्रयोग से बड़े हुए धातुओं को घटाने से और घटे हुए धातुओं को बढ़ाने से धातुओं की साम्यावस्था लाई जाती है। इससे सिद्ध होता है कि धातुओं की साम्यावस्था से शरीर स्वस्थ होता रहता है।
चरक संहिता में ही विकारों के सम्बन्ध में निम्न सूत्र दिया गया है-
‘‘विकारो धातु वैषम्यं साम्यं प्रकृतिरुच्यते’’
अर्थात् धातुओं की विषमता को विकार कहते हैं और इनकी साम्यावस्था को आरोग्य कहते हैं। महषि चरक ने एक सूत्र में कहा है-
येषामव हि भावनां संपत संजनयेन्नरम्।
तेषामेव विचद्वयाधीन् विविधान्समुदीरयेत्।।
अर्थात् जिन भावों या सजातीय भूतों के प्राकृतिक प्रशस्त गुणों से संयोगी पुरुष की उत्पत्ति होती है। उन ही के विगुणों से अर्थात् उनकी विकृति से मनुष्य की व्याधियां उत्पन्न होती हैं।
उपरोक्त सूत्रों के अर्थ से स्पष्ट है कि धातुओं या भूतों की विषमता से ही विकार उत्पन्न होते हैं और इनकी साम्यावस्था में मनुष्य का स्वास्थ्य उचित बना रहता है। इसका अभिप्राय यह निकलता है कि यदि हम उचित रूप से आहार, विहार, व्यायाम, विश्राम आदि के प्राकृतिक नियमों का पालन करते रहते हैं तो हम धातुओं की साम्यावस्था को बनाए रखने में समर्थ रहते हैं और स्वस्थ जीवन जीने सफल हो सकते हैं। ऐसा जीवन निश्च्ति रूप से दीर्घ भी हो सकेगा, इसमें कोई भ्रांति नहीं होनी चाहिए।
शरीर का आधार धातुएं हैं- हम अथर्ववेद में कई स्थानों पर त्रिधातु अर्थात् वात, पित्त और कफ शरीर के इन तीन मूल तत्त्वों का उल्लेख पाते हैं। इस शरीर को एक सुन्दर गृह माना गया है जो तीन धातुओं ( वात, पित्त और कफ ) का बना हुआ है। यह तीन प्रकार के दुःखों (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक) से मुक्त हो। आयुर्वेद का भी यही उद्देश्य है कि शरीर को तापत्रय से मुक्त किया जाए।8 पित्त का भी कई मंत्रों में उल्लेख है।9 एक स्थान पर इनको अभ्रजा (वर्षा या ठण्ड से उत्पन्न होने वाला कफ), वातजा ( वायु से उत्पन्न होने वाला वात) और शुष्म (गर्मी सेे उत्पन्न होने वाला पित्त) कहा गया है।10 एक अन्य स्थान पर इनको वायु, अर्क और रयि नाम से निर्दिष्ट किया गया है।11
चरक, सुश्रुत और अष्टांगहृदय में वात, पित्त और कफ इन तीनों को शरीर का आधार माना गया है और यह माना गया है कि इन तीनों के विकार से ही शरीर में विभिन्न प्रकार के दोष उत्पन्न होते हैं।12 सुश्रुत का कहना है कि जिस प्रकार तीन खम्भों से मकान धारण किया जाता है, उसी प्रकार इन तीनों से शरीर स्थित है। इसीलिए शरीर को त्रिस्थूण कहते हैं।13 अष्टांगहृदय का कहना है कि वात, पित्त और कफ ये तीन दोष हैं। ये विकृत होने पर शरीर को हानि पहुंचाते हैं और अविकृत रहने पर शरीर को स्थिर रखते हैं।14 अथर्ववेद में जिस प्रकार वात, पित्त और कफ को वायु, अर्क (अग्नि) और रयि (सोम) कहा गया है, उसी प्रकार चरक और सुश्रुत ने वायु को वात, अग्नि को पित्त और सोम को श्लेष्म कहा है।15
त्रिदोष सिद्धान्त की उत्पत्ति- आयुर्वेदिक विशेषज्ञों ने धातुओं का विश्लेषण किया और इसके फलस्वरूप पृथ्वी, जल और धातुओं में बहुत अंशों तक समान गुण पाए गए। इस निर्णय के आधार पर उन्होने लोक और पुरुष का तुलना भी की और यह निष्कर्ष निकाला कि जिस प्रकार लोक में पृथ्वी, जल और धातुओं के गुण धर्म और कार्य सोम के समान हैं, उसी प्रकार पुरुष के शरीर में इसके समान कफ धातु है। जो गुण धर्म और कार्य सूर्य के हैं, वही कुछ शरीर में पित्त धातु के हैं। इसी प्रकार लोक में वायु के गुणधर्म और कार्य के समान शरीर का वात धातु है। इसके साथ-साथ उन्होंने यह भी घोषण की, कि जिस प्रकार पृथ्वी और जलरूप सोम, अग्निरूप सूर्य और वायु, प्राकृत अवस्था में रहकर लोक का कल्याण करते हैं और विकृत होकर इसको उपद्रवग्रस्त कर सकते हैं, ठीक उसी प्रकार शरीर में स्थित वात, पित्त और कफ धातु प्राकृतावस्था में समावस्था में रहकर, शरीर को धारण करते हुए स्वस्थ रखते हैं और विकृत होकर रोगग्रस्त या नष्ट कर सकते हैं। त्रिदोष सिद्धान्त के आधार पर ही आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली की नींव रखी गई है जिसमें अनेक द्रव्यों के आश्रित अनेक प्राकृतिक रसों और गुणों से युक्त विविध प्रकार की ओषधियां और भेषज कल्पनाएं की गई हैं जिनका प्रयोग स्वस्थ अवस्था में बल, और ओज की वृद्धि के लिए और रोगी हो जाने पर रोग की निवृत्ति के लिए किया जाता है।
अथर्ववेद में शरीर के अंगों का वर्णन- अथर्ववेद में शरीर के अंगों का वर्णन मिलता है।16
अथर्ववेद में रोग के कारण- इसमें ज्वर के लिए तक्मन् शब्द का प्रयोग मिलता है। चरक ने ज्वर को सार रोगों में प्रधान माना है क्योंकि यह सारे प्राणियों के प्राणों को हरता है और देह, मन व इन्द्रियों को कष्ट देता है। यह शरीर को संतप्त करता है, इसलिए इसे ज्वर कहते हैं। अन्य रोगों की अपेक्षा इसकी चिकित्सा कठिन मानी गई है।17
अथर्ववेद में रोगों के नाम- अथर्ववेद में विभिन्न रोगों के नाम मिलते हैं। कुछ नाम इस प्रकार हैं-
शीर्षक्ति (शिरोवात), शीर्षमय (सिरदर्द), कर्णशूल (कान दर्द), विलाहित (पीलिया), पाण्डु रोग, शीर्षण्य (मस्तिष्क-विकार7सम्बन्धी रोग)।18 हरिमा (पीलिया, जलोदर)।19 कास (खांसी, यक्ष्मा रोग) जो सारे अंगों में फैल जाता है।20 शीर्षलोक (सिर-सम्बन्धी रोग), सदन्दि (प्रतिदिन वाले रोग), हायन (साल भर चलने वाले रोग)।21 आशरीक (हड्डी दूटना आदि), बलास (खांसी, क्षय), पीठ दर्द या कमर दर्द तथा ठण्ड से होने वाली बीमारियां।22
अथर्ववेद में प्रत्येक अंग में होने वाले रोगों का भी उल्लेख मिलता है-
आस्राव (पेचिस)।23 विसल्प (पीड़ा), विद्रध (फोड़ा), वातीकार (वात रोग)।24 उनमत्तता।25 कुष्ठ।26 क्लीबत्व।27 गर्भदोष।28 गण्डमाला।29 ज्वर।30 दुःस्वप्न।31 मूत्रकृच्छ्र।32 यक्ष्म।33 रुधिर-स्राव।34 श्वेतकुष्ठ।35 हृद्रोग।36 क्षेत्रियरोग।37
अथर्ववेद में वणिर्त विभिन्न चिकित्सा अथर्ववेद में – अथर्ववेद में चिकित्साओं को चार भाग में बांटा गया है।
1- मनुष्यज- इनमें वैद्य आदि के द्वारा की जाने वाली चिकित्साएं हैं।
2- देवी- इनमें पंचतत्त्वों से की जाने वाली चिकित्साएं सम्मिलित हैं।
3- आंगिरसी चिकित्सा- मानसिक शक्ति या इच्छा शक्ति से होने वाली चिकित्सा है।38
4- आथर्वणी चिकित्सा- अथर्वा योगी को कहते हें, अतः योग सम्बन्धी चिकित्सा या योगाभ्यास से की जाने वाली चिकित्सा है।39
उपरोक्त चिकित्सा पद्धतियांे के अतिरिक्त अथर्ववेद में निम्न चिकित्सा पद्धतियांे का भी उल्लेख मिलता है-
1- सूर्यकिरण चिकित्सा- सूर्य की किरणें शरीर को सूख देती हैं। अथर्ववेद में सूर्य-किरणों से चिकित्सा का बहुत विस्तार से वर्णन मिलता है।40
2- जल चिकित्सा- अथर्ववेद में जल चिकित्सा को बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है। जल से ाभी प्रकार के रोग नष्ट किए जा सकते हैं।41
3- प्राकृतिक चिकित्सा- अथर्ववेद में प्राकृतिक चिकित्सा की कई विधियों का उल्लेख मिलता है। इनमें प्राणायाम- प्राकृतिक चिकित्सा सूर्य-चिकित्सा और चन्द्र-चिकित्सा मुख्य हैं। चन्द्रमा को आयु बढ़ाने में सहायक माना गया है।42
4- मानस चिकित्सा- अथर्ववेद में मनोबल पर विशेष महत्त्व दिया गया है। मानस चिकित्सा से श्री-लरभ होता है। मनुष्य स्वस्थ और नीरोग होकर तेजस्वी होता है।43
5- यज्ञ चिकित्सा- अथर्ववेद में यज्ञ चिकित्सा को भी महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। अथर्ववेद में कहा गया है कि जिस घर में नियमपूर्वक यज्ञ किया जाता है वहां रोग के कृमि स्वयं नष्ट हो जाते है।अतः उसके यहां रोग का नाश हो जाता है।44
6- शल्य चिकित्सा- अथर्ववेद में शल्य चिकित्सा का भी उल्लेख मिलता है। रोहणी ओषधि को घाव, चोट, हड्डी टूटने आदि की चिकित्सा बताया गया है।45
7- सर्पविष चिकित्सा- अथर्ववेद में 18 प्रकार के सांपों का उल्लेख मिलता है।46 अथर्ववेद में ताबुव ओषधि से सर्पविषनाशन का वर्णन है।47 अन्य कई प्रकार की चिकित्साओं का भी वर्णन मिलता है।
8- कृमि चिकित्सा- अथर्ववेद में कृमियों के दो रूप बताए गए हैं48- दृष्ट (दीखने वाले) और अदृष्ट (न दीखने वाले) । इनके निवास स्थान आंत, सिर, पसली आदि बताए गए हैं। कई स्थानों पर सूर्य को कृमि नाशक कहा गया है। सूर्य को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सभी कृमियों को नष्ट करने वाला कहा गया है।49
9- केशरोग चिकित्सा- अथर्ववेद में बालों में होने वाले रोगों की चिकित्सा और बाल बढ़ाने के उपायों का वर्णन मिलता है। अथर्ववेद में दो सूक्तों में नितत्नी ओषधि को केश रोगों की चिकित्सा बताया गया है।50
10- मानसिक चिकित्सा- अथर्ववेद में क्रोध की चिकित्सा का वर्णन किया गया है।51 इसमें दर्भ और भूरिमल ओषधियों का वर्णन है। भावप्रकाश निघण्टु में कुश को शीतल कहा गया है जो क्रोध को शान्त करता है।52
11- उन्माद रोग चिकित्सा- अथर्ववेद में उनमत्तता के नाशन का उपाय बताया गया है।53 मनुष्य के हृदय में जो आसुरी भावनाएं हैं, वे उसके हृदय को विक्षुब्ध करती रहती हैं। इससे मनुष्य अपने को भूल कर कुमार्गगामी हो जाता है। ऐसी अवस्था को उन्माद की अवस्था कहा जाता है। ऐसे विचारों से युक्त व्यक्ति को राक्षस या आसुरी भावना वाला कहा जाता है। अथर्ववेद में इसका विस्तृत वर्णन किया गया है।54
13- नेत्र रोग चिकित्सा- अथर्ववेद में नेत्र रोग चिकित्सा का वर्णन भी वाया जाता है।55
14- कास रोग (खांसी) चिकित्सा- अथर्ववेद में सारे शरीर में फैली खांसी की चिकित्सा ओषधि सेवन और पहाड़ में रहना बताया गया है।56 खांसी को मनोबल से दूर करने का भी उल्लेख है।57
15- गंडमाला-चिकित्सा- अथर्ववेद में गंडमाला रोग का वर्णन मिलता है। इसका एक नाम रामायणी भी दिया गया है। इस रोग के स्थान गर्दन, बगल और स्त्रियों के गुप्त स्थान बताए गए हैं।58
16- आनुवंशिक रोग चिकित्सा- अथर्ववेद में माता-पिता आदि के रोग सन्तान में आने को आनुवंशिक या क्षेत्रिय रोग कहा गया है।59
17- हृदय रोग-चिकित्सा- अथर्ववेद में मृग के सींग को आनुवंशिक हृदय रोगों का नाशक बताया गया है।60
18- ज्वर चिकित्सा- अथर्ववेद में ज्वर चिकित्सा का विस्तृत वर्णन वाया जाता है। कूठ ओषधि को सारे रोगों को दूर करने वाला कहा गया है। कूठ सिर के रोगों को, प्रतिदिन आने वाले ज्वर को, तीसरे दिन आने वाले ज्वर को और साल भर रहने वाले ज्वरों को नष्ट करने वाला बताया गया है।61
19-अग्निमाद्य (कब्ज) आदि रोग- अथर्ववेद में अजीर्ण (कब्ज), वमन (कै) आदि रोगों की चिकित्सा काभी वर्णन मिलता है। इसके तीन सूक्तों के 24 मंत्रों में अपामार्ग ओषधि के गुणों का विस्तार से वर्णन किया गया है।62
20- गुप्त रोग-चिकित्सा- अथर्ववेद में पुरुषों और स्त्रियों के गुप्त स्थानों पर होने वाले रोगों की चिकित्सा का वर्णन भी मिलता है। अर्शोरोग या बवासीर में गुप्त स्थानों पर या मुह आदि में मस्से हो जाते हैं और खून गिरता है। इसके साथ ही खुजली भी होती है। इसको आयुर्वेद में दुर्णाम नाम दिया गया है। दुर्णाम बवासीर की चिकित्सा पृश्निपर्णी ओषधि बताई गई है।63
21- स्त्रीरोग-चिकित्सा- अथर्ववेद में स्त्रियों के रोगों की चिकित्सा का भी वर्णन मिलता है। वन्ध्यात्व रोगों की चिकित्सा में ऋषभक ओषधि का उल्लेख किया गया है।64
22-श्वेत-कुष्ठ-चिकित्सा- अथर्ववेद में श्वेत कुष्ठ के चार कारण बताए गए हैं-1.अस्थिज अर्थात् हड्डियों में हुए विकार से उत्पन्न। 2.तनूज अर्थात् शारीररिक या मांस के दोषों से उत्पन्न। 3. त्वचा के विकार से उत्पन्न। 4. दोषपूर्ण आचरण से उत्पन्न। अथर्ववेद में बताया गया है कि रामा कृष्णा और असिक्नी ओषधियां श्वेत-कुष्ठ को दूर करें।65
23-क्षत,व्रण आदि की चिकित्सा- अथर्ववेद में ताजी चोट के लिए जल-चिकित्सा
बताई गई है। घाव, चोट आदि के लिए रोहणी ओषधि का उल्लेख मिलता है।66
24- वातरोग-चिकित्सा- अथर्ववेद में कहा गया है कि पिप्पली अर्थात् पीपर के सेवन करने वाला कभी रोग ग्रस्त नहीं होता है।67 पीपर से उनमाद रोग, वातरोग और पक्षाघात की चिकित्सा की जाती है।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अथर्ववेद में आयुर्वेद का मूल ज्ञान विस्तृत रूप से उपलब्ध होता है। हम केवल संक्षिप्त परिचयात्मक वर्णन ही दे पाए हैं। अथर्ववेद प्रतिपादित आयुर्वेद की चिकित्सा ही वास्तविक चिकित्सा पद्धति हो सकती है, जो प्राकृतिक नियमों के आधार पर खड़ी है और सर्व साधारण व्यक्ति को न केवल स्वस्थ रख सकती है अपितु दीर्घजीवी भी बना सकती है।
पुनश्चः-सन्दर्भों की संख्या अधिक होने के कारण वैबसाइट के लेख में इनका उल्लेख नहीं किया गया है। यदि कोई पाठक इसकी आवश्यकता समझते हैं तो उन्हें इमेल के माघ्यम से प्रेषित कर दिया जाएगा।
-कृष्ण कान्त वैदिक
बहुत अच्छा लेख, मान्यवर !