ईतनी अति ना कर…..
आंख बंद कर दोह रहे हो, जल जंगल हो या सागर।
आने वाली नस्लों की भी सोचो, इतनी अति ना कर॥
छीन रहे हो आभूषण क्यूं , रोज धरा का पछताओगे
कंकरीट के जंगल में, फिर जीवन जीवन चिल्लाओगे।
तरसोगे बारिश की बूंदो के अमृत को , याद करोगे
इस हरियाली के मखमल को, रेगिस्तान बना जाओगे॥
भोगवाद की दौड में पडकर, भ्रष्ट तू अपनी मति ना कर…
आने वाली नस्लों की भी सोचो, इतनी अति ना कर…..
सब कुछ निगलने को आतुर हो, ये जमीन और आसमान भी
जाने पेट नही क्यूं भरता, निगल के पूरा ये जहांन भी।
सबका हिस्सा छीन रहा है, पक्षी तक बेघर कर डाले
तूने अपने दुष्कर्मों से, पीछे छोड दिये शैतान भी॥
कुछ तो सोच रहम कर, मानवता की ईतनी क्षति ना कर…
आने वाली नस्लों की भी सोचो, इतनी अति ना कर…..
पशु भी अपनी नस्लों की खातिर, संरक्षित करते हैं संसाधन
तेरी भोगवासना छीन रही, बच्चों का आने वाला कल।
यूं ही गर बरबाद करेगा, तू अपनी प्रकृति को
आनी वाली नस्लों को ना, खाना मिलेगा और ना जल॥
अपनी ही नस्लों की यूं, अपनें हाथों, दुर्गति ना कर…..
आने वाली नस्लों की भी सोचो, इतनी अति ना कर…..
सतीश बंसल
बहुत खूब !
शुक्रिया विजय जी…