ओ प्रिये…..
एक बार प्रिये का दृगपलक,
उठे उपर सहज नीचे गिरे,
छलकती बाढ़ सी सौंदर्य में।
नवीन गुलाब जैसे फैले गालों में,
सस्मित अधखुले जूबानो में,
जुड़ाव कर रही मुझमें ग्रन्थि,
ओ प्रिये मिलन हुई वर्षों में।
स्नेह दृष्टि तेरे कोमल हृदय में,
आभास हो रही है मेरे हृदय में।
मधुर -मधुर- मुग्ध राग लिये ,
ओ प्रिये स्थिर हो मेरे अन्तस में॥
मेरे शिश को उठाकर रखी हो,
अपने सुकोमल जांघ पर ,
काम – परता सौंदर्य देखती हो,
ओ प्रिये लिपट बाह के आगोश में।
@रमेश कुमार सिंह
०३-०९-२०१५