इस्लामी शासन में मुसलमानों को क्या मिला?
जब गर्व करने की बारी आती है तो कुछ याकूबी मानसिकता वाले मुसलमान बड़े गर्व से ये बतलातें हैं कि हमने हजार बर्ष तक इस मुल्क पर हुकूमत की है पर ऐसी गर्वोक्ति करते हुये वो यह बात भूल जातें हैं कि उन मुस्लिम बादशाहों के शासनकाल में भी इनकी स्थिति बदतर ही थी क्योंकि राजदरबार और शासन कार्यों में मुस्लिम बादशाहों ने मतांतरित भारतीय मुसलमानों की बजाये अपने हमवतन तुर्क आदि तथा हिंदुओं को स्थान दे रखा था, इतना ही नहीं वो विदेशी आक्रमणकारी यहां के मतांतरित मुसलमानों को हेय दृष्टि से देखते थे और उनसे धृणा करते थे। यहां तक कि अगर कभी उन्हें राजदरबार में सम्मानित भी किया जाता तो विदेशी मुसलमान उनके शत्रु हो जाते थे और उन्हें पदच्युत करवाकर ही मानते थे। रजिया सुल्तान ने जब एक बार अपने दरबार में एक मतांतरित भारतीय मुसलमान इमामुद्दीन रेहन को स्थान दिया था तो बलबन समेत सारे तुर्क सरदार रजिया से नाराज हो गये थे। बलबन ने तो ये तक कह दिया था कि रेहन भारतीय है, वह इस भूमि में पैदा हुआ है और चूंकि उसकी धमनियों में तुर्क रक्त नहीं बहता इसलिये वह नापाक है। मजबूरन रजिया को रेहन को दरबार से हटाना पड़ा था। बाद में जब बलबन सत्तासीन हुआ तो उसने रेहन का कत्ल करवा दिया।
इल्तुतमिश की तर्ज पर मुहम्मद बिन तुगलग ने भी अमीराने-सदह की स्थापना की थी जिसमें उसने भारतीय मतांतरित मुसलमानों की बजाये मंगोल, अफगान, तुर्क और राजपूतों को स्थान दिया था। मुहम्मद बिन तुगलक का सबसे विश्वस्त सेवक रतन नाम का हिंदू था जिसका तुगलक पर सर्वाधिक प्रभाव था। तुगलग ने उसे सिंहवान का गर्वनर नियुक्त किया था। जिससे उस वक्त के कट्टरपंथी मुसलमानो को नाराज हो गये और रतन की हत्या कर दी। तुगलक ने रतन के हत्यारे और उन हत्यारों से सहानुभति रखने वालों की हत्या करवा दी थी। कृष्ण नारायण को तुगलक ने अवध की बागडोर सौंपी थी तथा भैरव नाम के हिंदू को गुलबर्ग की बागडोर सौंपी थी। मीरन राय, साई राज, धारा आदि हिंदू उसके शासनकाल में बड़े महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त थे। मुहम्मद बिन तुगलक के बारे में यह मशहूर है कि वह उलेमाओं से परामर्श नहीं लेता था, यदि किसी उलेमा पर राजद्रोह या कोई अन्य आरोप लगता था तो वह उन्हें सजा भी देता था।
उसके दरबार में गैर-मुस्लिम विद्वानों को भी बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त थी तथा जैन मत के दो विद्वान जिन् प्रभा सूरी तथा राजशेखर के साथ उसके बड़े अच्छे संबंध थे। सुल्तान ने जिन् प्रभा सूरी को उपहार में एक हजार गायें दी थी। उसके बारे में यह भी आता है कि वह पहला ऐसा मुस्लिम सुल्तान था जो खुलकर हिंदू त्योहारों में सम्मिलत होता था। गिरनार मंदिर में भी उसके जाने का वर्णन मिलता है। इतना ही नहीं अभिलेखों से पता चलता है कि हिंदू साधुओं के रहने के लिये उसने धर्मशाला बनबाई थी तथा गोशाला का निर्माण करवाया था।
फिरोजशाह तुगलग के दरबार लगाने का तरीका बड़ा अनूठा था। उसके दरबार में 10 या 12 व्यक्तियों को ही बैठने की अनुमति थी और बाकी सब खड़े रहते थे। दरबार में बैठने वालों में उसके वंश वाले मुसलमानों के अतिरिक्त तीन हिंदू सरदार राय मदार देव, राय सुबीर और रावत अधरन भी थे। बहलोल लोदी ने भी अपने दरबार और प्रशासनिक कार्यों में हिंदुओं को ऊँचा स्थान दे रखा था जिनमें रायकरण, रामप्रताप, रामवीर सिंह, रायत्रिलोक चंद, राय धंधू जैसे लोग प्रमुख थे। शमशाबाद का गर्वनर उसने राजा करन को बनाया था। लोदी वंश के ही शासक सिकंदर लोदी ने ईसा खाँ नाम के मुस्लिम सरदार को मरवाकर उसकी जगह हिंदू राजा गणेश को पटियाली की गद्दी सौंपी थी। बहमनी राज्य के शासक हसन ने अपने दरबार में गंगू नाम के एक हिंदू ब्राह्मण को प्रमुख स्थान दिया था। अकबर के नवरत्नों में पाँच हिंदू (राजा टोडरमल, तानसेन, बीरबल, मानसिंह और भगवानदास) थे, बाकी चार में एक अरब था और बाकी उसके ही वंश और नस्ल के थे।
उपरोक्त तमाम उदाहरण से स्पष्ट कर देतें हैं कि यहां के लोगों को इन सुल्तानों ने इस्लाम में दीक्षित सिर्फ अपने हितों के लिये किया। राज-काज और तमाम प्रशासनिक कार्यों में उन्होंने हिंदुओ और अपने वंशजो को स्थान दिया हुआ था। यहां के मतांतरित मुसलमानो की उनके राज-काज में कोई सहभागिता नहीं थी वरन् वो तो इन्हे तुर्क और मंगोल खून का न होने के कारण हेय दृष्टि से देखते थे।
इसलिए मुसलमानों लिये यह जरुर अध्ययन का बिषय होना चाहिये कि जिन मुस्लिम बादशाहो को वो नायक रुप में देखतें हैं वो इस्लाम का कितना प्रतिनिधित्व करते थे और उनके कृत्य कितने इस्लाम सम्मत थे? गौरी, गजनवी, बाबर आदि हमलावरों को अपने नायक रुप में देखने वाले और उसे अपना आदर्श मानने वालों को इस प्रश्न का विचार भी करना चाहिये कि इस्लाम की किस परिभाषा के इन हमलावरों को मुस्लिम माना जाये?
(प्रस्तुति – के. के. गुप्ता)