लघुकथा

लघुकथा : रूमाल

आज सासु माँ की तेरहवीं है। मेहमानों के बीच उदासी ओढ़कर नकली आँसू बहाते हुए बहू संजना अब उकता गई थी। एक ननद को छोडकर बाकी सभी मेहमान जा चुके थे। अब उसे इंतज़ार था सास की विरासत में छोड़ी हुई चीज़ें देखने का, उनकी अलमारी की चाबी की जानकारी केवल ननद मीना को ही थी। उसने सबके सामने अलमारी खोली। सामने ही लॉकर की चाबी और एक कागज़ का पुर्जा पड़ा था। मीना ने माँ का लिखा हुआ संदेश पढ़ा, माँ ने अपने जेवर इकलौती पोती और बेटी के नाम किए थे, कैश रुपयों पर बेटे का अधिकार था,  उनके सभी नए पुराने कपड़े गरीब महिलाओं में बाँट दिये जाने का ज़िक्र था। एक सीलबंद पैकेट था जिसके ऊपर एक पिन किए हुए कागज़ पर लिखा हुआ था- “यह पैकेट बहू के लिए है लेकिन वो इसे अपने बेटे, मेरे पोते अनुज की शादी के एक वर्ष बाद ही खोल सकेगी। मेरी अंतिम इच्छा के अनुसार तब तक यह बैंक के लॉकर में रख दिया जाए”।

बेटे ने वह पैकेट बैंक के लॉकर में रखवा दिया। दिन गुजरते गए, छह महीने बाद अनुज की शादी हो गई, सगाई पहले ही हो चुकी थी। बहू आराधना के घर में आते ही संजना ने कुछ राहत महसूस की। अब वो अपना ध्यान अपने पति और अपने स्वास्थ्य पर ही देना चाहती थी। वह बात-बात पर बहू को निर्देश देती लेकिन आराधना उसके कहे को एक कान से सुनकर दूसरे से झटक देती। सास की कही हर बात का उलटा जवाब देती। धीरे-धीरे  उसने सास को रसोई से बेदखल कर दिया।

समय गुज़रता रहा और संजना हालात से समझौता करती गई। अब पुराना संयुक्त परिवारों का ज़माना नहीं रहा, जब सास बहू पर हावी हुआ करती थी। आज की बहुएँ सास को अच्छा होने का मौका ही नहीं देतीं बल्कि ऐसा माहौल पैदा कर देती हैं जिससे उसे बुरा साबित किया जा सके और मौका मिलते ही पति को लेकर उड़ जाती हैं। गई सदी के इतिहास के वे पन्ने जब सास बहू पर हावी हुआ करती थी, आज की बहुओं ने फाड़कर फेंक ही दिये हैं, सास कितनी भी पढ़ी लिखी और समझदार हो लेकिन बहू स्वतंत्र ही रहना चाहती है और इसके लिए जाल बुनती ही रहती है, और सास का नाम ही परिवार की सूची से मिटा देना चाहती है। उसने भी तो यही किया था न, अपनी सास सुमित्रा के साथ! वो पढ़ी लिखी सुलझे विचारों की महिला थी और अपनी पुराने विचारों की सास से मिले हुए कष्टों को भूलकर संजना को हर तरह की सुविधाएँ, सहयोग और प्यार देकर सास के नाम पर लगे मनहूस धब्बे को हमेशा के लिए मिटाकर नया इतिहास रचना चाहती थी,  लेकिन संजना क्षण भर भी खुशी न दे सकी थी उसे। आज उसे सास की बहुत याद आ रही थी, तभी सामने लगे कैलेंडर पर उसकी निगाह पड़ गई। दो दिन बाद ही  बेटे बहू की शादी की पहली वर्षगाँठ है। सास की वसीयत के अनुसार एक साल पूरा हो चुका था। तीसरे दिन ही वो बैंक जाकर लॉकर से अपने नाम का पैकेट निकलवा कर ले आई। मन में उथल पुथल मची हुई थी कि आखिर उसे सास ने क्या दिया होगा।

बेटे बहू के इधर-उधर होते ही उसने वो पैकेट खोल दिया। अंदर सास के तह किए हुए लगभग एक दर्जन पुराने रूमाल थे और एक दूसरा पैक पैकेट भी था। देखकर अचानक उसकी आँखें एक सवाल लिए सिकुड़ गईं। साथ ही पिन किए हुए कागज़ पर लिखे शब्द पढ़ने लगी-“बहू ये वे रूमाल हैं जिनसे मैं बेटे का विवाह होने के एक साल बाद से मृत्यु-पर्यंत आँसू पोंछती रही”। पढ़कर उसकी आँखों से अविरल  आँसू बहने लगे। रोते-रोते उसने दूसरा पैकेट खोला, उसमें उतने ही बिलकुल नए रुमाल थे और वैसा ही  कागज़ का टुकड़ा पिन किया हुआ था- उसे कहीं से सास की आवाज़ सुनाई दी- “बहू, रो रही हो न, ये रूमाल तुम्हें अपनी अंतिम साँस तक आँसू पोंछने के काम आएँगे”। और उसने एक रूमाल उठाकर अपने आँसू पोंछ लिए।

 

-कल्पना रामानी

*कल्पना रामानी

परिचय- नाम-कल्पना रामानी जन्म तिथि-६ जून १९५१ जन्म-स्थान उज्जैन (मध्य प्रदेश) वर्तमान निवास-नवी मुंबई शिक्षा-हाई स्कूल आत्म कथ्य- औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद मेरे साहित्य प्रेम ने निरंतर पढ़ते रहने के अभ्यास में रखा। परिवार की देखभाल के व्यस्त समय से मुक्ति पाकर मेरा साहित्य प्रेम लेखन की ओर मुड़ा और कंप्यूटर से जुड़ने के बाद मेरी काव्य कला को देश विदेश में पहचान और सराहना मिली । मेरी गीत, गजल, दोहे कुण्डलिया आदि छंद-रचनाओं में विशेष रुचि है और रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर प्रकाशित होती रहती हैं। वर्तमान में वेब की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘अभिव्यक्ति-अनुभूति’ की उप संपादक। प्रकाशित कृतियाँ- नवगीत संग्रह “हौसलों के पंख”।(पूर्णिमा जी द्वारा नवांकुर पुरस्कार व सम्मान प्राप्त) एक गज़ल तथा गीत-नवगीत संग्रह प्रकाशनाधीन। ईमेल- kalpanasramani@gmail.com

2 thoughts on “लघुकथा : रूमाल

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    जैसा को तैसा
    सीख देती कहानी

    • कल्पना रामानी

      हार्दिक धन्यवाद विभा जी

Comments are closed.