गज़ल
हमारे साथ तेरी दिल्लगी अच्छी नहीं लगती
दिखावे की तेरी ये दोस्ती अच्छी नहीं लगती
नसीबों से मिला मुझको दुआओं में जिसे माँगा
वफ़ा की राह में तेरी कमी अच्छी नहीं लगती
अँधेरी राह में भटके बहुत जीवन के रस्तों पर
उगा सूरज, दिये की रौशनी अच्छी नहीं लगती
चमन को सींचता है जब बड़े उम्मीद से माली
कली जब टूट जाये तो डाली अच्छी नहीं लगती
जलाया था दीया के रौशनी हो पूरी दुनिया में
मुझे गिरते घरों में तीरगी अच्छी नहीं लगती
कभी सोचा कि कैसे जी रहा होकर अधूरा मैं
अधूरा चाँद हो तो चांदनी अच्छी नहीं लगती
हमारे शेर पढ़ कर तुम कभी जो मुस्कुराते थे
सनम तुमको मेरी अब शायरी अच्छी नहीं लगती
निभाना सीख लो रिश्ता किसी को मानकर अपना
“धरम” अब आप की आवारगी अच्छी नहीं लगती
— धर्म पाण्डेय
अति सुंदर गज़ल