ग़ज़ल
ख्वाहिशें ले के हम हज़ार गए,
पर तेरे दर से बेकरार गए
तुझे गैरों से ना मिली फुर्सत,
हम तुझे मिलने कितनी बार गए
चाहा जो ना मिल सका मुझको,
यूँ ही बस जिंदगी गुज़ार गए
थोड़ी अपनी भी गल्तियां थी और,
थोड़े हालात हमको मार गए
हाकिम-ए-वक्त कल तलक थे जो,
आज रह सुर्खी-ए-अखबार गए
मुड़ के आए नहीं इधर को वो,
जो इक बार दरिया पार गये
सूखे फूलों में लौटी ना खुश्बू,
कितने ही मौसम-ए-बहार गए
— भरत मल्होत्रा।