कविता

वीरान सी गलियां

दूर तक जहां भी जाती है नजर
एक सूना सा मंजर आता है नजर…

वीरान सी गलियां है, हर आंगन खाली है
उजडे से गुलशन हैं, हैरान सा माली है
वीरान सी गलियां….

होली अब रंगों की, बौछार नही करती।
अब काली अमावस सी, काली दीवाली है
वीरान सी गलियां….

अब खेल के ये मैदान, खुशियों को तरसते है।
रोजी के ठिकानों नें, जिन्दगी बुला ली है।
वीरान सी गलियां….

ये कैसा पलायन है, कैसी मजबूरी है।
गांवों की किस्मत में, क्यूं ये बदहाली है॥
वीरान सी गलियां….

इतराती थी फसलें, जहां अपनी जवानी पर
उन खेतों के दामन, फसलों से खाली है॥
वीरान सी गलियां….

उस बेटे को ये मां, दिन रात बुलाती है।
जिसने मजबूरी में खुद फांसी लगा ली है॥
वीरान सी गलियां….

ओ शहर के आकाओं, उस गांव की भी सोचो।
जिसका दामन अब भी, खाली का खाली है॥
वीरान सी गलियां….

सतीश बंसल

*सतीश बंसल

पिता का नाम : श्री श्री निवास बंसल जन्म स्थान : ग्राम- घिटौरा, जिला - बागपत (उत्तर प्रदेश) वर्तमान निवास : पंडितवाडी, देहरादून फोन : 09368463261 जन्म तिथि : 02-09-1968 : B.A 1990 CCS University Meerut (UP) लेखन : हिन्दी कविता एवं गीत प्रकाशित पुस्तकें : " गुनगुनांने लगीं खामोशियां" "चलो गुनगुनाएँ" , "कवि नही हूँ मैं", "संस्कार के दीप" एवं "रोशनी के लिए" विषय : सभी सामाजिक, राजनैतिक, सामयिक, बेटी बचाव, गौ हत्या, प्रकृति, पारिवारिक रिश्ते , आध्यात्मिक, देश भक्ति, वीर रस एवं प्रेम गीत.