वीरान सी गलियां
दूर तक जहां भी जाती है नजर
एक सूना सा मंजर आता है नजर…
वीरान सी गलियां है, हर आंगन खाली है
उजडे से गुलशन हैं, हैरान सा माली है
वीरान सी गलियां….
होली अब रंगों की, बौछार नही करती।
अब काली अमावस सी, काली दीवाली है
वीरान सी गलियां….
अब खेल के ये मैदान, खुशियों को तरसते है।
रोजी के ठिकानों नें, जिन्दगी बुला ली है।
वीरान सी गलियां….
ये कैसा पलायन है, कैसी मजबूरी है।
गांवों की किस्मत में, क्यूं ये बदहाली है॥
वीरान सी गलियां….
इतराती थी फसलें, जहां अपनी जवानी पर
उन खेतों के दामन, फसलों से खाली है॥
वीरान सी गलियां….
उस बेटे को ये मां, दिन रात बुलाती है।
जिसने मजबूरी में खुद फांसी लगा ली है॥
वीरान सी गलियां….
ओ शहर के आकाओं, उस गांव की भी सोचो।
जिसका दामन अब भी, खाली का खाली है॥
वीरान सी गलियां….
सतीश बंसल