कविता : ख़त
ना जाने कितने ख़त लिखे तुम्हे
कितने तुमने पढ़े पता नहीं
हर एक नया खवाब लिखा तुम्हे
कितने तुमने पुरे किये पता नहीं
हर एक एहसास को लिखती रही में
तुम्हे खुद में – मैं लिखती रही
जज्बातों को तुम कहाँ समझ पाये
हर एहसास का कोरा सा जवाब आये
मेरे ख़तो की स्याही आंसू से बनी थी
जो तुम्हे नजर ही नहीं आई थी
कभी उन ख़तो को पढ़ा होता
कभी तो मुझे समझा होता
कोरे कागज सी ज़िन्दगी पर
कभी तो अपना हस्ताक्षर किया होता ||