ग़ज़ल
सूखे पत्तों की तरह इधर-उधर जाते हैं,
हमें खुद ही नहीं खबर है किधर जाते हैं
अपनी किस्मत में तो खानाबदोशी है लिखी,
जो खुशनसीब हैं हर शाम को घर जाते हैं
जाने क्या बात है हस्ती नहीं मिटती अपनी,
हर इक चोट पे कुछ और संवर जाते हैं
बात तुम जब भी करो सोच-समझ के करना,
जिंदा रहते हैं लफ्ज़ जिस्म तो मर जाते हैं
खज़ाना-ए-गुहर मिलता है उन्हीं लोगों को,
जो दरियाओं के सीने में उतर जाते हैं
छोटे लोग, छोटे घर जो देखने हैं तुम्हें,
तो ऐसा करते हैं आज बड़े शहर जाते हैं
— भरत मल्होत्रा