गीत : बयानबाज
(फ़ेसबुक कार्यालय पर माँ को याद कर मोदी के रोने और माँ की गरीबी को ढोंग बताये जाने पर बयानबाजों को जवाब देती मेरी ताज़ा रचना)
फूस बिछौना अखरा है क्यों मखमल के गलियारों को?
चिकने पत्थर चिढ़ा रहे क्यों माटी के चौबारों को?
मनीप्लान्ट के पौधे आँगन की तुलसी को डांट रहे
मदिरा के प्याले मंदिर में चरणामृत को बांट रहे
राजघराने जो अय्याशी के ही सदा सबूत हुए
जहाँ सदा सोने की चम्मच लेकर पैदा पूत हुए
जहाँ किसी ने कभी अभावों के अनुभव को छुआ नहीं
जिन्हें गरीबी के आलम का दर्द कभी भी हुआ नहीं
ढोंगी थे जो फिरंगियों से हाथ मिलाकर रखते थे
खादी के नीचे रेशम की जेब लगाकर रखते थे
जो कुर्सी को किसी हाल में दूर नहीं कर सकते थे
चाय बेचने वाले को मंज़ूर नहीं कर सकते थे,
वही घराने आज गरीबी को झुठलाने आये हैं
माँ की ममता और कष्ट का नाप बताने आये हैं
तुम क्या जानो, कैसे आंसू रोज निकाले जाते हैं
चार चार बच्चे इक माँ से कैसे पाले जाते हैं
तुम क्या जानो साहब कितने बोझे ढोने पड़ते हैं
इक गरीब माँ को पड़ोस के बर्तन धोने पड़ते हैं
जो माँ खुद भूखा रहकर बच्चों का पेट भराती हो
बच्चों को बिस्तर देकर जो धरती पर सो जाती हो,
ऐसी माँ जब भी बेटे की यादों में आ जाती है
हम तो हैं इंसान, आँख पत्थर की भी भर आती है
जो आया की गोद पले हों, डिब्बे वाला दूध पिये
जिनकी माँ ने रानी बनकर रुतबे के संग राज किये
वो क्या जाने, इक माँ की क्या क्या मजबूरी होती है
बर्तन कैसे धोते हैं? कैसी मज़दूरी होती है
तुम तो दहशत गर्दो पर आंसू छलकाने वाले हो
माँ की पावन ममता का उपहास उड़ाने वाले हो
ये ‘गौरव चौहान’ कहे जिनको ममता का भान नहीं
जिनको इन आँखों से बहते आंसू की पहचान नहीं
माँ के दुःख जो ढोंग बताये, तो बेटा बर्बाद है वो,
लावारिस है या धरती पर नाजायज़ औलाद है वो
—कवि गौरव चौहान