मेरी कहानी 66
पासपोर्ट ऑफिस में बहुत लोग बैठे थे और दस मिनट तो हर एक को अफसर से बातें करने में लग ही जाता था। तकरीबन दो घंटे बाद मेरा नाम बोला गिया और मैं उठ कर दफ्तर में चला गया। वहां एक बड़े तगड़े हंसमुख और स्मार्ट आदमी बैठे थे। उन्होंने मुझे कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और मैं उन के सामने बैठ गिया। वोह फ़ाइल में मेरे पेपर देखने लगे। काफी देर तक देखते रहे। मेरे मन में कुछ ऐसा चल रहा था कि कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए, मेरी एप्लीकेशन रिजेक्ट ना हो जाए , कोई ऐसा सवाल ना पूछ ले जिस के कारण फिर से उसी मुसीबत में फंस जाऊं कि राधे जैसे लोगों का मुंह फिर से देखना पड़ जाए। एक एक मिनट घंटे जैसा लग रहा था। उस ने एक दफा फ़ाइल पड़ कर दुबारा एक एक पेज को देखना शुरू कर दिया। जब उस की तसल्ली हो गई तो कहने लगे ,” your passport will be despatched in three days”. यह लफ़ज़ मुझे अभी तक याद हैं और इन को सुन कर मुझे लगा मैं ख़ुशी से फट जाऊँगा लेकिन मैं अपने आप को कंट्रोल में रख कर ऑफिसर को बोला ,” किया आप मुझे आज ही दे नहीं सकेंगे ? वोह बोले नहीं ,ऐसी उन की पॉलिसी नहीं है ,सिर्फ पोस्ट ही किये जाते हैं। मैंने थैंक्स बोला और ऑफिस से बाहर आ गिया। मेरा मन इतना खुश था कि बताना मुश्किल है।
इस बिल्डिंग से बाहर आ कर मैं स्कूटर रिक्शा की इंतज़ार करने लगा। मेरा खियाल था कि वोह सरदार जी जो मेरे पीछे पड़ गए थे कहीं से आ धमकेंगे लेकिन वोह दिखाई नहीं दिए और जब तक एक रिक्शा आ गिया और मैंने उसे रेलवे स्टेशन को चलने के लिए बोला। जल्दी ही रेलवे स्टेशन पर आ गया लेकिन जब ट्रेन का पता किया तो उस को अभी कई घंटे रहते थे। मैं इधर उधर घूमने लगा और दिली का नज़ारा लेने लगा। भूख भी लग गई थी और मैं एक छोटे से होटल में खाना खाने के लिए बैठ गिया। इस होटल में बहुत ही कम जगह थी और इस होटल की सिर्फ एक बात याद है और वोह है एक पंडित जी जिस के माथे पर तिलक लगा हुआ था और कपडे भगवा थे और यह सिआसत की बातें कर रहा था। मुझे तो सिआसत में इतनी दिलचस्पी नहीं थी लेकिन वोह बोले जा रहा था ,” इस नेहरू को किया पता है , इस से ज़्यादा पड़ा लिखा और समझदार तो परताप सिंह कैरों है और नेहरू सारा मशवरा परताप सिंह कैरों के साथ ही करता है “.
परताप सिंह कैरों उस वक्त पंजाब का चीफ मिनिस्टर हुआ करता था और बहुत अच्छा हुक्मरान हुआ करता था और इस ने डंडे के जोर पर रूल किया था लेकिन बाद में इस को कुछ लोगों ने मार दिया था। उस वक्त पंजाबी सूबे के बारे में मुजाहरे हुआ करते थे लेकिन कैरों ने इन्हें सख्ती से कुचल दिया था। हर रोज़ जालंधर रेडिओ पर उन का एक नारा बोला जाता था जो पूरा तो याद नहीं लेकिन कुछ लफ़ज़ अभी भी याद हैं ,” हमें परताप सिंह कैरों के इन लफ़्ज़ों को कभी भूलना नहीं चाहिए ” और इस के बाद कोई जोर शोर से बोलता था ,” जो सूबा ,जो देश अपने शहीदों को भूल जाता है वोह अपना इतहास भूल जाता है , हम एक हैं और एक ही रहेंगे “. यह नारा काफी लम्बा होता था लेकिन सारा मुझे याद नहीं।
काफी देर तक मैं यहां बैठा रहा ताकि वक्त बीत जाए। फिर मैं रेलवे स्टेशन पर जा पौहंचा ,टिकट लिया और ट्रेन में जा बैठा। ट्रेन चलने लगी और रिलैक्स हो कर मैं अपने खियालों में गुम हो गिया। पिछली रात मैं सोया नहीं था और यह रात भी ऐसे ही बीतनी थी लेकिन मुझे इस की कोई परवाह नहीं थी क्योंकि मुझे सफर में कभी नींद आती ही नहीं है। वैसे मुझे ऐसी ट्रेने जो हर स्टेशन पर खड़ी होती है में ट्रैवल करने में बहुत मज़ा आता है। मैं बिलकुल बोर नहीं होता हूँ। हर स्टेशन पर लोगों की रौनक से आनंद अनुभव करता हूँ। पता ही नहीं चला किस वक्त सुबह गाड़ी फगवाड़े रेलवे स्टेशन पर आ पौहंची। बाहर आ कर मैं मासी के घर की ओर चल पड़ा। सुबह का वक्त था और मासी ने पराठे बनाये और गरमा गर्म मैंने खा कर चाय पी और गाँव की और चल पड़ा। घर पौहंच कर माँ को बताया कि मेरा पासपोर्ट कुछ ही दिनों में बन कर आ जायेगा। घर में एक ख़ुशी की लहर आ गई।
अब मैंने बहादर को भी बता दिया कि मेरा पासपोर्ट भी बन रहा था लेकिन यह नहीं बताया कि मेरा पासपोर्ट एक दो दिन में आने वाला था। बहादर कुछ चिंतत था कि उस का पासपोर्ट बन नहीं रहा था ,उस के चाचा गुरदयाल सिंह बहुत भाग दौड़ कर रहे थे लेकिन कुछ पता नहीं चल रहा था। वक्त बीत रहा था और सब की चाहत यही थी कि १ जुलाई से पहले पहले काम बन जाए।
तीन दिन बीत गए लेकिन मेरा पासपोर्ट आया नहीं ,कुछ चिंता होने लगी। दिन बीतने लगे और एक हफ्ता हो गिया लेकिन पासपोर्ट मुझे मिला नहीं। तरह तरह की बातें दिमाग में आने लगी , कभी सोचता शायद पासपोर्ट ऑफिसर ने जान बूझ कर कुछ ऐसा कर दिया हो , कभी सोचता पोस्ट ऑफिस में किसी ने चुरा ना लिया हो क्योंकि अक्सर सुनते रहते थे कि पासपोर्ट चोरी हो जाते और बेच दिए जाते थे और एजेंट उन पर किसी और की फोटो लगा कर उस को बाहर भेज देते थे और हज़ारों रूपए बना लेते थे। इसी उधेड़ बुन में रहने के बाद मैं फिर एक रात फिर जनता मेल में बैठ कर दिली को रवाना हो गिया। दस वजे मैं पासपोर्ट ऑफिस पौहंच गिया और कुछ देर बाद पासपोर्ट ऑफिसर के सामने बैठ गिया और मैंने उस को कहा कि पिछले हफ्ते मुझे बताया गिया था कि तीन दिन में मुझे पासपोर्ट मिल जाएगा लेकिन अभी तक आया नहीं। ऑफिसर उठ कर अंदर गिया और कुछ देर के बाद आ कर मुझे कहने लगा कि जो पासपोर्ट की फीस के पैसे भेजे गए थे उस की रिसीट नहीं मिल रही थी ,अब कन्फर्म हो गया है और आप के पैसे मिल गए हैं , अब आप का पासपोर्ट तीन दिन में डिस्पैच कर दिया जाएगा। मैं बाहर आ गिया और शीश गंज गुरदुआरे चले गिया। काफी घंटे मैंने वहां बताये और लंगर खा कर घूमने लगा। शाम को ट्रेन पकड़ी औए घर आ गिया।
एक हफ्ता फिर बीत गिया लेकिन मेरा पासपोर्ट नहीं आया। अब तो मुझे बहुत चिंता होने लगी ,दिल टूटने जैसा हो गिया ,लगने लगा कि पासपोर्ट मुझे नहीं मिलेगा। हौसला करके मैं फिर एक रात को जनता मेल में बैठ गिया। बुझा बुझा सा मन था। वक्त बीतता नज़र नहीं आ रहा था। रब रब करके मैं दिली पौहंच ही गिया और सीधा पासपोर्ट के दफ्तर में चले गिया। कुछ घंटे बाद जब मैं ऑफिसर के सामने बैठा तो मैं बोला ,” सर मैं तीसरी दफा आया हूँ , यहाँ पौह्न्चने में मुझे बारह घंटे लग जाते हैं और पैसे भी बहुत खर्च हो जाते हैं ” . फ़ाइल को देखने के बाद वोह अंदर गिया और जाते ही बहुत जोर से किसी को बोला ,” यह किया हो रहा है, यहाँ लोग बार बार कियों आते हैं ,कियों काम नहीं हो रहा ?”. ऐसे ही वोह मेरे सामने आ कर बैठ गिया ,गुस्सा अभी भी उस के चेहरे पर था और आते ही बोला ,” हम आज ही आप का पासपोर्ट भेज रहे हैं।
शाम को फिर ट्रेन में बैठ गिया लेकिन मन में शंकाएं थीं कि पासपोर्ट मिलेगा या नहीं। घर आ गिया। दिन बीतने लगे ,एक हफ्ता फिर हो गिया लेकिन पासपोर्ट नहीं मिला। दिल टूट चुक्का था ,अब तो कुछ करने को रह ही नहीं गिया था। कालज जाते ,बहादर और मैं रोज़ वोह ही बातें करते। अब तो हम दोनों ही एक कश्ती के सवार थे। एक दिन मैं अकेला ही अपनी बाइक पर हदिआबाद रोड पर कालज को जा रहा था। मैं पहले लिख चुक्का हूँ कि कालज तक यह सारा एरिआ सतनाम पुरा कहलाता है और इसी रोड पर सतनाम पुरा पोस्ट ऑफिस हुआ करता था जो शायद आज भी होगा। जब हम मैट्रिक में पड़ते थे तो हमारे सेक्शन से एक लड़का दसवीं पास करने के बाद इसी पोस्ट ऑफिस में क्लर्क लग गिया था और इस लड़के की शादी हमारे गाँव के ही एक लड़के की बहन से हो चुक्की थी जो कभी मिडल स्कूल में हमारे साथ पड़ा करता था। कुछ साल इस को पोस्ट ऑफिस में काम करते हो गए थे और कभी कभी हमारी मुलाकात गाँव में,कभी हदिआबाद रोड पर हो जाती थी, इस लड़के का नाम सुरिंदर था।
जब मैं साइकल पर जा रहा था तो दुसरी ओर से सुरिंदर भी आ रहा था। हम खड़े हो गए और हमेशा की तरह एक दूसरे को हैलो बोला। सुरिंदर बोला ,” गुरमेल ! तुम को पासपोर्ट की वधाई हो “. मैंने कहा ” यार क्यों मखौल कर रहे हो , अभी तो मिला ही नहीं “. सुरिंदर बोला ” क्यों झूठ बोल रहे हो ,मैं ने अपने हाथों से तो तुम्हारे गाँव की डाक में भेजा है और इस बात को पांच दिन हो गए हैं “. शहर के बड़े पोस्ट ऑफिस से जितनी भी डाक बाहर से आती थी ,हमारे गाँव की डाक इसी सतनाम पुरे पोस्ट ऑफिस से हो कर जाती थी। सुरिंदर की बात सुन कर मैं अपने गाँव की ओर चल पड़ा और सीधे हमारे गाँव के पोस्ट मैंन भगवान दास के घर पौहंच गिया और उस का दरवाज़ा खटखटाया।
भगवान दास ने ही दरवाज़ा खोला ,और मैं सीधे ही बोला ,” मेरा पासपोर्ट !”. भगवान दास मुस्करा कर बोला ,” तो अब लेना है ?”. मैंने गुस्से में कहा ,” पासपोर्ट को आये पांच दिन हो गए हैं और तूने अभी तक मुझे क्यों नहीं दिया ?”. भगवान दास अंदर गिया और पासपोर्ट का लफाफा ले आया ,उस ने मेरे दस्तखत कराये और बोला ,” पासपोर्ट की ख़ुशी में अब हमारी भी कुछ चाय पानी हो जाए “. मैंने कहा ,” अगर तुम उसी दिन पासपोर्ट दे देते तो मैं तुम्हें खुश कर देता ,लेकिन जो तुम ने घर में इतने दिन पासपोर्ट रख कर मुझे परेशान किया है उस की वजह से एक पैसा भी नहीं दूंगा “. और मैं उसी वक्त घर को आ गिया।
घर आ कर मैंने लफाफा खोला और पासपोर्ट पर अपनी फोटो और सभी डीटेल्ज़ पड़ीं। सब कुछ ठीक था। एक एक करके सभी पेजज़ मैंने देखे। जब तसल्ली हो गई तो पहले माँ को दिखाया और फिर छोटे भाई को दिखाया। जब दादा जी आये तो उन को भी दिखाया। सभी खुश थे। दादा जी कहने लगे ,” इस ख़ुशी में अब हलवा बनाओ “. दादा जी की ख़ुशी या तो हलवे से मनाई जाती थी या पकौड़े बनाने से। माँ ने हलवा बनाया और सब ने खाया। फैराडे हाऊस कालज को खत लिखने से ले कर आज तक जितनी मंज्लें पार कीं , इंग्लैंड जाने की यह पहली स्टेज थी।
जिस दिन पासपोर्ट मिला ,उस दिन तीन जून थी। अब मेरे लिए मुश्किल से चार हफ्ते बचे थे १ जुलाई से पहले। अब रह गिया सिर्फ सीट बुक कराने का काम। दादा जी को मैंने सीट के लिए पैसे ले आने को कहा। दादा जी और मैं दूसरे दिन फगवाड़े को अपने अपने बाइसिकल पर चल पड़े। दादा जी ने पैसों का इंतज़ाम करना था और मैंने जोशी से मिलना था। शहर पौहंच कर दादा जी स्टेट बैंक की ओर चल पड़े जो कचहरी के साथ ही होती थी और मैं जोशी के दफ्तर में चले गिया। यहां मैं यह भी लिखना चाहता हूँ कि जोशी के दफ्तर से पचीस तीस गज़ की दूरी पर ही वोह दफ्तर था जिस ने मेरे लिए फैराडे हाऊस कालज को खत लिखा था लेकिन मैं उस को भूल ही गिया , हो सकता है यह जोशी के कारण हो क्योंकि सारा काम तो उस ने ही किया था।
जोशी को मैंने पासपोर्ट दिया और सीट बुक कराने के लिए बोला। जोशी बोला ,” जब तक मैं आप के पेपर तैयार करता हूँ , तुम जा कर एक चिठ्ठी ले आओ जो यह बताये कि तुम रामगढ़िया कालज के विद्यार्थी थे। मैं उसी वक्त कालज को चल पड़ा। पहले मैं सतनाम पुरे पोस्ट ऑफिस जा कर सुरिंदर को मिला और उस को सब बताया जो भगवान दास ने मेरे साथ किया था। सुरिंदर का मैंने धन्यवाद किया कि वक्त पर उस ने पासपोर्ट के बारे में मुझे बता दिया था वरना पता नहीं अभी और कितने दिन लग जाते। यहां मैं यह भी लिखना चाहता हूँ कि सुरिंदर और मेरा मिलन आज से बीस वर्ष पहले बर्मिंघम के एक कबरस्तान में हुआ जब हम किसी के फ्यूनरल पर इकठे हुए थे। सुरिंदर ने ही मुझे पहचाना और मेरी तरफ आ कर मुझे कहा ,” कैसे गुरमेल सिंह ?”. उस ने खुद ही कहा ,”मैं सुरिंदर हूँ “हम इतने खुश हुए कि बता नहीं सकता। सुरिंदर का चेहरा बहुत बदल चुक्का था , बहुत कमज़ोर और कुछ बूढ़ा सा लगता था। हम ने पुरानी बातें याद कीं।
कालज पौहंच कर मैं सीधा हैड क्लर्क गुरमीत सिंह के दफ्तर में गिया और उस को कन्फर्मेशन लैटर के लिए बोला। कहावत है ,” अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे “. जब हम टूर पर गए थे तो हमारा खर्च बहुत हो गिया था और हम को सौ सौ रूपए और देने को बोला गिया था लेकिन मैंने नहीं दिए थे क्योंकि मैंने सोच रखा था कि मैं तो इंग्लैण्ड चले जाना है , बाद में कौन पूछता है। गुरमीत सिंह ने एक बड़ा सा रैजिस्टर देखना शुरू कर दिया और कुछ देर बाद बोला ,”गुरमेल ! तेरे अकाउंट में तो सौ रूपए बाकी देने वाले हैं ,पहले सौ रूपए निकालो ,फिर ही क्लीरैन्स मिलेगा। फंसी तो फटकन कैसा ! मैंने सौ रूपए निकाले और साथ ही दस दस के दो नोट और निकाले ,मैंने कहा लो भाई गुरमीत सिंह ,सौ रूपए कालज के और बीस रूपए में सब दोस्तों को कैंटीन में चाय पिला देना।
गुरमीत सिंह खुश हो गिया, उस ने एक पेपर टाइप किया और प्रिंसीपल के दफ्तर में जा कर साइन करवा कर ले आया। अपने साइन उस ने पहले ही कर दिए थे और आते ही वोह पेपर मुझे दे दिया। जब मैं जोशी के दफ्तर में पौहंचा तो दादा जी पहले ही वहां बैठे थे। जोशी साहब उस वक्त टाइपराइटर पर मसरूफ थे। कुछ देर बाद मुझ से पुछा,” ले आये ?” मैंने पेपर उस के हाथ में दे दिया। जोशी ने पड़ कर बोला ,” ठीक है , अब तेराह सौ रुपय टिकट के लगेंगे, क्योंकि पांच सौ रूपए स्टूडेंट कन्सेशन है।”. मैंने दादा जी से तेराह सौ रूपए लिए और जोशी जी को दे दिए। जोशी जी किसी को टेलीफून पर बातें करने लगे और मेरा नाम बोलने लगे। मैं समझ गिया कि मेरी सीट की बात हो रही थी। कुछ देर बाद उन्होंने टेलीफून का रिसीवर रख दिया और मुझ को बोले ,” गुरमेल सिंह तुम्हारी सीट एअर इंडिया की १९ जून को बुक हो गई है , अठरा जून को रेलवे स्टेशन पर जनता मेल के लिए आ जाना ,उस दिन मैंने भी एक काम के लिए जाना है ,इकठे ही चलेंगे।
सीट बुक हो गई और इस बात से भी मुझे ख़ुशी हो गई कि जोशी भी मेरे साथ चलेगा। मैं और दादा जी गाँव को चल पड़े। उस समय मैं १९ वर्ष का था और मन में ट्रैवल करने का एक भय सा भी था कि यह सब कैसे होगा ,कभी एयरपोर्ट देखी नहीं थी ,कभी एरोप्लेन में बैठा नहीं था, फिर भी यंग ही तो था !. दादा जी भी कुछ चुप्प से थे। कुछ ही देर बाद हम घर पौहंच गए। मेरे जाने की तारीख सब को मालूम हो गई , कुछ चुप चुप सा माहौल था घर में। कुछ देर बाद मैंने ही इस चुप को तोडा और दादा जी को शॉपिंग के लिए कुछ रूपए मांगे जो उन्होंने उसी वक्त दे दिए। सुना था इंग्लैण्ड में ठंड बहुत है ,इस लिए एक नया सूट और गर्म ओवरकोट सिलवाना था और एक सूटकेस जिस को अटैचीकेस कहते थे भी कपड़ों के लिए लेना था। दूसरे दिन शहर जाने का प्रोग्राम बना कर मैं सो गिया ,क्या क्या चल रहा था मेरे दिमाग में ,याद नहीं।
चलता …………..
वाह आदरणीय लाजवाब आत्मकथा सादर नमन् जय माँ शारदे
भाई साहब आपको जो झेलना पडा लगभग वही आज भी झेलना पड़ता है चाहे नया पासपोर्ट बनवाना हो या पुराने का नवीकरण कराना हो। पुलिस वाले और ख़ुफ़िया सुरक्षा वाले किसी न किसी बहाने रुपये ले ही मरते हैं। उनके लालच के कारण ही जाली पासपोर्ट भी बन जाते हैं।
विजय भाई , यह बहुत दुःख की बात है ,यानी मेरी कहानी के उस समय से ले कर आज तक कुछ फर्क नहीं आया ,कब यह सोच बदलेगी ?
आज की पूरी क़िस्त को पढ़कर उसे गहराई से समझा। आपको दिल्ली तीन बार जाना पड़ा और पोस्टमैन ने भी आपको कष्ट पहुँचाया। यह सब बाते कुछ लोगो की लापरवाही और स्वार्थ के कारण हुई। ख़ुशी है कि समय पर सब काम हो गया। आपको बधाई। आज की क़िस्त के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी एवं नमस्ते।
मनमोहन भाई , धन्यवाद . दरअसल हम कुछ भारती ना तो किसी की मजबूरी समझते हैं ना ही उस से हमदर्दी करते हैं . अब तो मैं यहाँ हूँ लेकिन मेरा नहीं खियाल कि भारत में बदलाव आया होगा . उस वक्त जो मेरे मन की हालत थी ,नौकरशाही लोगों को इस की कोई परवाह नहीं थी .
आपने जो लिखा वह आज भी अक्षरक्षः सत्य है। आज भी हमें इन सब बुरी बातो को झेलना पड़ता है। स्थिति में गुणात्मक सुधार नहीं हो रहा है। कुछ विभागों में स्थिति जटिल है। हार्दिक धन्यवाद।
मनमोहन भाई , कहने को तो हम बहुत धार्मिक हैं ,लाखों मंदिर मस्जिद ,गुरदुआरे और गिरजे हैं और भगवान् की पूजा बहुत करते हैं लेकिन बुरे कर्म करते हुए हमें कोई रब दिखाई नहीं देता .बचपन से आज तक यह सुनते सुनते मेरे कान पक्क गए हैं , भगवान् का नाम लो ,वोह है ,वोह हर जगह है अतिआदिक लेकिन मैं सोचता हूँ कि सारी उम्र हमें यह ही पता नहीं चला कि भगवान् है ? कौन सी मुश्किल बात है इस में कि कोई भगवान् है ,जो हमें बार बार यह ही बताया जाता है . क्यों नहीं हमें भगवान् को छोड़ अछे इंसान बनने को कहा जाता ?
धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपने जो बात कही है, वही बात वेद भी कहते हैं। वेद मनुष्यों को कहते हैं कि “मनुर्भव” अर्थात तुम मनुष्य वा श्रेष्ठ मनुष्य अर्थात आर्य बनों। गुरुकुल कांगड़ी के दीक्षांत समारोह में एक बार देश के एक बहुत बड़े नेता आये। उन्होंने उपाधिया लेने जा रहे स्नातकों से पूछा कि तुम क्या बनना चाहते हो? किसी ने कहा डॉक्टर, किसी ने इंजीनियर और किसी ने नेता आदि आदि। तब स्नातकों को सम्बोधित करते हुवे नेता जी ने कहा कि मुझे यह जानकार दुःख है कि आप सब डॉक्टर या इंजीनियर या नेता आदि बनना चाहते है पर किसी एक ने भी यह नहीं कहा कि वह मनुष्य या इंसान बनना चाहता है। आज भी देश की यही स्थिति है कि यहाँ कोई मनुष्य या इंसान बनना नहीं चाहता। धन्यवाद।