हमारे पुराने साथी दयानन्दभक्त श्री शिवनाथ आर्य
ओ३म्
श्री शिवनाथ आर्य हमारी युवावस्था के दिनों के निकटस्थ मित्र थे। उनसे हमारा परिचय आर्यसमाज धामावाला देहरादून में सन् 1970 से 1975 के बीच हुआ था। दोनों की उम्र में अधिक अन्तर नहीं था। वह अद्भुत प्रकृति वाले आर्यसमाजी थे। उनके विलक्षण व्यक्तित्व के कारण मैं उनकी ओर खिंचा और हम दोनों में मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बन गये जो समय के साथ साथ निकटतर व निकटतम होते गये। श्री शिवनाथ जी हमारे ही मोहल्ले में हमारे घर से लगभग 500 मीटर की दूरी पर एक किराये के भवन में रहते थे। पांच पुत्रों और दो पुत्रियों का आपका भरापूरा परिवार था। आप देहरादून के कपड़ों के प्रसिद्ध बाजार रामा मार्किट में एक दर्जी की दुकान पर कपड़े सिलने का काम करते थे। आप पुरूषों की कमीजें सिलते थे और आपको प्रति कमीज के हिसाब से पारिश्रमिक मिलता था। रात दिन आपको आर्यसमाज के प्रचार की धुन रहती थी। दुकान के मालिक आपकी प्रकृति व प्रवृत्ति से भलीभांति परिचित थे। जब आपको कोई बात सूझती तो आप दुकान से निकल पड़ते और घंटे दो घंटे बाद दुकान पर आ जाते और काम करने लगते। हम भी यदा कदा आपकी दुकान पर जाते आते थे और दुकान के स्वामी से बातें करते थे जो बहुत सज्जन व व्यवहार कुशल थे। शिवनाथ जी अच्छी बातें सीखने की प्रवृत्ति भी थी। यही कारण था कि आपने अपने बच्चों से कामचलाऊ हिन्दी पढ़ना व लिखना सीख लिया था। आप आर्यसमाज की हिन्दी पत्र पत्रिकाओं को पढ़ते थे और अपनी प्रतिक्रियायें भी भेजते थे जो यदाकदा पत्रों में छप जाती थीं। हमने भी ऐसी कई प्रतिक्रियायें पढ़़ी थी।
कुछ समय बाद आपने एक किराये की दुकान ली और स्वतन्त्र रूप से वस्त्र सिलने का काम आरम्भ कर दिया। हमने भी एक बार पैण्ट शर्ट सिलवाया परन्तु हमारा अनुभव अच्छा नहीं रहा क्योंकि फिटिंग में कमियां थी। हमारे मोहल्ले में अन्य कई मित्र भी रहते थे जो आर्यसमाज से संबंधित थे। प्रमुख व्यक्ति इंजीनियर सत्यदेव सैनी थे। इनका निवास हमारे और श्री शिवनाथ जी के निवास के मध्य में था। सैनी जी आवास विकास परिषद में अवर अभियंता-जेई के रूप में सर्विस करते थे। देहरादून में जब हरिद्वार रोड़ पर नेहरू कालोनी के नाम से आवासीय भवनों का निर्माण हुआ तो, श्री सैनी जी ने मार्गदर्शन कर शिवनाथ जी के लिये भी एक आवास बुक करा दिया था जो उन्हें आवास बन जाने व उनको अलाट होने पर किस्तों में लिया था। आज भी आपका परिवार इसी मकान में रहता है। हमारे मोहल्ले के एक अन्य महत्वपूर्ण आर्यसमाजी बन्धु श्री धर्मपाल सिंह थे जो पहले पोस्टमैन बने, फिर केन्द्रीय जल संसाधन कार्यालय में नियुक्त हुए और बाद में उत्तर प्रदेश लेखकीय सेवा में नियुक्त हुए थे। आपका निवास हमारे निवास से कुछ मकानों के अन्तर पर ही था। हम दोनों एक ही स्कूल ‘श्री गुरूनानक इण्टर कालेज’ में पढ़े थे। घर्मपाल जी कला विषय पढ़ते थे और मैं विज्ञान व गणित का विद्यार्थी था, अतः दोनों की कक्षायें अलग अलग थी। पता नहीं कैसे, हम दोनों में निकटता हो गई और उन्हीं की निकटता, मित्रता, व्यवहार एवं प्रेरणा से मैं भी आर्यसमाजी बन गया। धर्मपाल जी को आर्यसमाज की पुस्तके पढ़ने का बहुत शौक था और सैकड़ों की संख्या में उनके यहां साहित्य था। मैं भी उनसे प्रेरित होकर पुस्तके खरीदने और पढ़ने लगा था और पढ़ने का मेरी प्रवृत्ति, रूचि वा शौक आज भी पूर्ववत जारी है। उनके व अन्य मित्रों के साथ अनेक बार दिल्ली व अन्यत्र अनेक कार्यकर्मो में जाने का अवसर मिला था। 31 अक्तूबर सन् 2000 को वह अपने विभागीय कार्य से ट्रैकर से पौडी जा रहे थे जो ऋषिकेश पास दुर्घटनाग्रस्थ हो गया था जिससे उनकी मृत्यु हो गई और वह हमसे सदा सदा के लिए बिछुड़ गये।
श्री शिवनाथ जी ने अपने आर्य एवं आर्यसमाजी बनने की घटना हमें दो या तीन अवसरों पर सुनाई थी जो अत्यन्त मार्मिक एवं प्रभावकारी है। उन्होंने बताया था कि एक बार वह किसी आर्यसमाज के सत्संग में जा पहुंचे। वहां एक विद्वान का प्रवचन चल रहा था। उन्होंने प्रवचन सुना। वक्ता महोदय ने एक घटना सुनाते हुए कहा था कि एक पिता अपने किशोर अवस्था वाले पुत्र को पढ़ाई करने के लिए बहुत ताड़ना किया करते थे। वह पुत्र इससे उनका विरोधी हो गया और उसने उन्हें समाप्त करने की योजना बना डाली। एक दिन वह बालक स्कूल जाने के बजाये एक बड़ा पत्थर लेकर घर की छत पर जा पहुंचा। वहां एक ऐसा स्थान बना था कि यदि वह उसे छोड़ता तो वह सीधा कार्यालय जाने से पूर्व नाश्ता कर रहे पिता के सिर पर गिरता और इससे उनकी मृत्यु हो जाती। इससे पूर्व कि बालक अपनी योजना को अंजाम देता, नाश्ता करने से पूर्व उस बालक की मां ने पिता को पुत्र की ताड़ना करने वा डांटने का विरोध करते हुए उन्हें उससे प्रेम पूर्वक व्यवहार करने की विनती की। इस पर पिता ने अपनी धर्मपत्नी को बताया कि वह अपने पुत्र उससे कम प्यार नहीं करते अपितु सभी पिताओं से कुछ अधिक प्यार करते हैं। वह चाहते हैं कि उनका पुत्र बड़ा होकर बहुत योग्य मनुष्य बने। ऐसा न हो कि बड़ा होकर वह अपने मित्रों से पिछड़ जाये और उसे सारा जीवन पछताना पड़े। यही कारण है कि वह पढ़ाई में उससे सख्ती करते हैं क्योंकि इसी से उसका जीवन बनेगा। बालक ने पिता की बातें ध्यान से सुनी तो उसके मन से उनके प्रति घृणा व ईर्ष्या दूर हो गई। वह नीचे उतरा और पिता के पास गया और उन्हें अपनी योजना के बारे में बताकर क्षमा याचना की और भविष्य में अपनी पूरी क्षमता से पढ़ाई करने का उन्हें आश्वासन दिया। सत्संग में व्याख्यान दे रहे वक्ता ने बताया कि बाद में यह बच्चा अपने सभी मित्रों से आगे निकल गया और विद्वान व धनी व्यक्ति बना। शिवनाथ जी जब इस घटना को सुनाते थे तो उनकी व सुनने वालों की आंखों में अश्रुधारा प्रवाहित हो जाती थी। इस प्रवचन वा घटना से प्रभावित होकर वह आर्य समाजी बने थे और उन्होंने सच्चा धार्मिक व सामाजिक जीवन व्यतीत किया।
श्री शिवनाथ आर्य की प्ररेणा पर हमने वेदों व आर्यसमाज का प्रचार करने के लिए एक ‘वेद प्रचार समिति, देहरादून’ का गठन भी किया जिसके प्रधान श्री सत्यदेव सैनी बनाये गये थे। मैं भी कुछ कार्य देखता था। श्री शिवनाथ आर्य, श्री धर्मपाल सिंह एवं एलआईसी में कार्यरत बहिन श्रीमति फूलवती जी, उनके पति शर्मा जी, माता सुभद्रा जी आदि इसके सक्रिय सदस्य थे। हम सब लोग मिल कर प्रत्येक रविवार को पारिवारिक वैदिक सत्संग करते थे। आरम्भ में यज्ञ, फिर भजन और अन्त में प्रवचन होता था। इस समिति के अन्तर्गत एक बार देहरादून के प्रमख सरकारी अस्पताल दून चिकित्सालय में वृहत यज्ञ व सत्संग का आयोजन किया गया था। देहरादून में एलआईसी का जब भव्य नवीन भवन बना तो उसका उदघाटन भी यज्ञ व सत्संग से ही किया गया था। एक वृहत योग शिविर एवं वेद विद्या पर स्वामी सम्बुद्धानन्द जी के आर्यसमाज धामावाला देहरादून में एक सप्ताह तक योग प्रशिक्षण एवं प्रवचन आदि सम्पन्न किये गये थे। ऐसी अनेक गतिविधियां श्री शिवनाथ जी के साथ मिलकर हमने 1990 व 2000 के दशक में की थी। एक बार आर्यजगत के विख्यात विद्वान, नेता और संन्यासी स्वामी नारायण स्वामी जी की कर्मस्थली नैनीताल से कुछ दूरी पर स्थित रामगढ़़ तल्ला में एक तीन दिवसीय आयोजन हुआ। हमने अपने और कुछ मित्रों के रेल टिकट बुक करा लिये थे और शिवनाथ जी को कार्यक्रम के बारे में सूचित कर दिया था। हमारे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब हमारे वहां पहुंचने के कुछ समय बाद वह भी अनेक असुविधायें झेलते हुए पहुंच गये थे। आर्यसमाज व वैदिक धर्म में उनकी आस्था व श्रद्धा निःसन्देह प्रशंसनीय थी। श्री शिवनाथ जी की कमजोर आर्थिक स्थिति व बड़े परिवार को देखते हुए उनके लिए यह जोखिम का कार्य था। इससे उनको कार्य करके मिलने वाले धन की क्षति होने के साथ व्यय भी करना पड़ा था। मित्रता के नाते उन्होंने वहां पहुंच कर हमें अनेक उलाहने दिये। कहा कि आप मुझे अपने साथ नहीं लाये आदि। एक बार एक सन्यासी देहरादून में उन्हें मिल गये और वह उनके साथ अपने परिवार वालों को बिना बताये उत्तराखण्ड के पर्वतों की ओर भ्रमण पर निकल गये। घरवाले व हम परेशान थे। अनिष्ट की आंशका भी हुई। मोबाइल फोन उन्होंने कभी रखा नहीं था। हमने देहरादून के सरकारी अस्पतालों व पुलिस स्टेशन आदि जाकर पता किया परन्तु कुछ पता नहीं चला। लगभग 1 सप्ताह बाद वह घर आ गये तब पूरी बात का पता चल सका। उन्हें इस बात की चिन्ता नहीं थी कि उनकी अनुपस्थिति में घर वालों पर क्या बीती थी। इससे यह पता चलता है कि वह अपनी घुन के धुनी थे और परिवार के मोहपाश में कम ही बंधे हुए थे।
श्री शिवनाथ जी को प्रवचन करने का अभ्यास भी हो गया था। हम जहां सत्संग करते थे वहां अन्य विद्वानों के साथ श्री शिवनाथ जी प्रायः प्रवचन भी किया करते थे। इन पंक्तियों को टाइप करते हुए सन् 1995 के देहरादून के कुछ समाचार पत्रों की कतरने हमारे सम्मुख आ गईं हैं जिनमें श्री शिवनाथ जी के प्रवचन प्रकाशित हुए हैं। एक समाचार का शीर्षक है ‘श्रेष्ठ कर्म मनुष्य को द्विज बनाते हैं: आर्य’, अन्य समाचारों के शीर्षक हैं ‘जन्म से सभी शूद्र होते हैं: शिवनाथ आर्य’, ‘कायर लोग ही धर्मान्तरण करते हैं: शिवनाथ’ तथा ‘राम, कृष्ण एवं दयानन्द गुरुकुल शिक्षा प्रणाली की देन थे: शिवनाथ’ आदि।
श्री शिवनाथ जी स्वयं को राजनीति से भी जोड़कर रखते थे। जब भी देहरादून नगर पालिका के सभासदों वा पाषर्दों के चुनाव होते थे तो वह भी चुनाव में खड़े होते थे। उन्हें कोई वोट मिलेगा या नहीं, इसकी चिन्ता उन्हें नहीं थी। इसी बहाने वह अपना चुनाव प्रचार करते थे और साथ में आर्यसमाज का भी प्रचार उसमें शामिल कर लेते थे। उनकी एक दो सभाओं में हम भी गये और उन्होंने वहां हमसे भी भाषण दिलवाया था। इसी प्रकार से वह दलित समाज के भी अनेक कार्यक्रमों में जाते थे। हमें प्रायः साथ रखते थे और वहां वह प्रवचन भी करते थे। लोगों को हमारा परिचय देते हुए हमारी दिल खोल कर प्रशंसा करते थे। एक बार कृष्ण जन्माष्टी के पर्व पर उन्होंने हमें भी अपने विचार व्यक्त करने के लिए विवश किया था। हमने उस समय श्री कृष्णजी के बारे में आर्यसमाज का दृष्टिकोण रख दिया था। इसके साथ ही हमने वहां लोगों को अपने बच्चों को शिक्षित करने तथा अपने परिवारों को शराब व मांस के रोग से मुक्त रखने व शुद्ध शाकाहारी भोजन करने के लिए समझाया था। अनेक अवसरों पर अनेक दलित परिवारों में भी उन्होंने पारिवारिक यज्ञ एवं सत्संग का आयोजन किया और सभी जगह वह हमें अपने साथ ले जाते थे। इससे हमें दलित बन्धुओं से मिल कर उनकी कुछ समस्याओं का ज्ञान भी होता था। हिन्दू समाज का यह दुर्भाग्य है कि यह परमात्मा की सन्तानों, अपने भाईयों से छुआ-छूत, ऊंच-नीच जैसा अमानवीय व्यवहार करते हैं। आर्यजगत के प्रसिद्ध गीतकार एवं गायक कुंवर सुखलाल आर्य मुसाफिर ने गुलामी के दिनों में एक बार पेशावर में कहा था कि हिन्दू कुत्ते व बिल्ली के बच्चों को तो प्यार करते हैं, अपनी गोद में उठा लेते हैं परन्तु अपने ही भाईयों को दुतकारते व अपने से दूर रखते हैं। इस पर पेशावर में कुंवर सुखलाल जी पर अंग्रेज सरकार द्वारा अभियोग भी चलाया गया था।
श्री शिवनाथ जी बहुत पुरूषार्थ करते थे तथा इसके विपरीत उन्हें पौष्टिक भोजन, अन्न, दुग्ध, फल व मेवे आदि शायद ही कभी भली प्रकार से प्राप्त हुए हों। इसका प्रभाव उनके स्वास्थ्य पर पड़ना स्वाभाविक था। इससे सम्बन्धित भी हमारी स्मृति में कुछ घटनायें हैं। सन् 2001 में देहरादून में आर्यसमाज के प्रमुख विद्वान श्री अनूप सिंह जी कैंन्सर रोग से पीडि़त थे। श्री अनूपसिंह जी का हमारे व्यक्तित्व के निर्माण में बहुत मनोवैज्ञानिक प्रभाव रहा है। उनसे व उनके परिवार से हमारे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। 21 जून, 2001 को उनकी दिल्ली के पन्त हास्पीटल में मृत्यु हुई थी। उन्हें देहरादून लाया गया और उसके अगले दिन हरिद्वार में गंगा के तट पर उनका वैदिक रीति से अन्तिम संस्कार किया गया था। मृत्यु से कुछ दिन पूर्व उन्होंने हरिद्वार में गंगा के तट पर साधारण तरीके से अन्त्येष्टि की हमसे इच्छा भी व्यक्त की थी। मृत्यु का समाचार मिलने पर श्री शिवनाथ जी उनकी शवयात्रा में भाग लेने के लिए उनके घर साइकिल चलाकर आ रहे थे। तभी रास्ते में उनके सीने में दर्द हुआ। शायद यह हल्का हृदयाघात था। उन्होंने सड़क के किनारे लेट कर कुछ क्षण आराम किया और उसके कुछ समय बाद अनूपसिंह जी के घर पहुंच गये। वह शवयात्रा के साथ हरिद्वार गये और अन्त्येष्टि में शामिल हुए। वहां उन्होंने हमसे कभी कभी होने वाले अपनी पीठ के दर्द की चर्चा की थी और किसी अच्छे डाक्टर के बारे में पूछा था। हमने सरकारी अस्पताल दून चिकित्सालय का नाम उन्हें बताया था। हरिद्वार से देहरादून की वापिसी में वह हरिद्वार ही छूट गये। कारण यह था उन्हें पुनः हृदय में दर्द उठा। उन्होंने एक दर्द की गोली ली और उसे खा कर सड़क पर ही आराम किया। हम सभी मित्रों में किसी का भी उनकी ओर ध्यान नहीं गया। उनके रोग से भी हम अपरिचित थे। किसी तरह रात्रि को वह घर पहुंचे और मेहमानों से बातें कर रहे थे। तभी उन्हें पुनः हृदयाघात हुआ। बच्चे उन्हें तुरन्त कारोनेशन चिकित्सालय ले गये जहां परीक्षा के दौरान ही डाक्टर की बाहों में ही उनका प्राणान्त हो गया। यह दिन 22 जून, सन् 2001 था। इस प्रकार से हमारा यह पुराना व सुख दुख का साथी व सहयोगी हमसे दूर चला गया। उनके जाने के बाद हमारे अनेक मित्र एक एक करके संसार से चले गये परन्तु उनका स्थान लेने वाला उन जैसा मित्र हमें नहीं मिला। आज भी हमें उनका अभाव अनुभव होता है। अपनी श्रद्धाजंलि के रूप में हमने यह कुछ शब्द लिखे हैं। श्री शिवनाथ आर्य जी को हम विनम्र श्रद्धाजंली अर्पित करते हैं।
‘‘पत्ता टूटा पेड़ से, ले गई पवन उड़ाये।
अबके बिछड़े न मिलेंगे दूर पड़ेगें जाये।।”
–मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन भाई , आप के मित्रों का पड़ा . एक एक करके जो बिछुड़े वोह कभी वापस तो नहीं आ सकते लेकिन उन की सिमिर्ती एक मीठी याद बन कर रह जाती है .
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। बहुत अच्छा लगा आपके शबों को पढ़कर। आपने सत्य कहा कि बिछुड़े मित्रों की याद आती है तो मन कुछ व्यथित वा दुखी हो जाता है। “माली आवत देख कर कलियाँ करें पुकार, फूली फूली चुन लिए काल्हि हमारी बार।” यह भी वास्तिक स्थिति है। एक दिन हम सबको अपने मूल निवास / घर (ईश्वर के पास उसे प्राप्त होकर मोक्ष में) लौटना है। पुनः धन्यवाद।