“तुकांत गीत”
कभी देखता हूँ बुत को कभी खुद को देखता हूँ
यह शहर है हमारा मै इसके कद को देखता हूँ ||
अरमानों का गला घोंट जाती हैं रह-रह गलियां
उदास मंजर में हंसी मै इसके हद को देखता हूँ ||
कितना बाकी है सहना कोई तो बताये गिनती
डर डर कर जीना मै इस नियति को देखता हूँ ||
हर जुर्म का हिसाब भोली जनता के माथे पर
करेगा फैसला ईश्वरमै उसकी रहम को देखता हूँ ||
मर गयी कैसे नियति हर चौपाल पर रे शोहरत
इंशानी रूप में मै यह किसकी शकल को देखता हूँ ||
अच्छा होता हम पुराने विचारों में ही रहते
नए मिजाज में मै हर दिन कलह को देखता हूँ ||
महातम मिश्र
अति सुंदर रचना
सादर धन्यवाद आदरणीय सुश्री विभारानी श्रीवास्ताव जी, आभार महोदया
वाह बहुत सुंदर भाव श्रीमान जी!नमन!!
सादर धन्यवाद मित्र रमेश सिंह जी
अतीव सुंदर
सादर धन्यवाद आदरणीय श्री राजकिशोर मिश्र जी, पटल पर आप के सादर आगमन से बहुत ख़ुशी मिली महोदय, स्नेहकाक्षी हूँ…….