मेरी कहानी 67
एक दिन बहादर मुझे मिला और मैंने उसे पासपोर्ट के बारे में पुछा तो वोह कुछ परेशान सा लग रहा था कि उस के पासपोर्ट का कुछ भी पता नहीं चल रहा था कि अभी कागज़ कहाँ पड़े थे। जब मैंने बताया कि मेरा पासपोर्ट मिल गिया था और सीट भी पक्की हो गई थी तो वोह और भी चिंतत हो गिया लेकिन बहादर का सारा काम उस के चाचा जी मास्टर गुरदयाल सिंह पर ही मुनस्सर था और गुरदयाल सिंह अपने चचेरे भाई जो कि एक ऑफिसर था, उस पे भरोसा करके बैठा था और पता चला कि उस ऑफिसर ने कुछ भी किया नहीं था। अब गुरदयाल सिंह ने दौड़ धूप करनी शुरू कर दी थीं। बहादर से मैंने विदा ली और शहर को शॉपिंग के लिए चल पड़ा।
उस वक्त रैडी मेड कपडे तो होते नहीं थे और टेलर के पास ही जाना पड़ता था। मैं गुरु नानक क्लाथ हाऊस वालों की कपडे की दूकान पर गिया और एक थ्री पीस सूट का कपडा लिया और दो कमीज़ों का कपडा भी लिया ,कुछ अन्य कपडे भी लिए। इस के बाद मैं गऊ शाळा रोड पर लंदन टेलरिंग वालों की दूकान पर गिया ,अपना नाप दिया , उन्होंने एक हफ्ते में कपडे तैयार करने का वादा किया और मैं साथ ही बाँसाँ वाले बाजार में बाटा शू की दूकान पर चले गिया। अच्छे अच्छे शूज़ मैंने देखे और एक जोड़ा लिया जो उस समय बहुत ही फैशन में था ।
इस के बाद मैंने लेना था अटैची केस ,यह भी बाँसाँ वाले बाजार से लिया। कुछ और छोटी मोटी चीज़ें जैसे टूथ ब्रश ,पेस्ट आदक लेकर मैं वापस आ गया। इस के बाद मैं सीधा जोशी की दुकान पर गया और उससे मुलाकात की। जोशी मुझे कहने लगा ,”१९ जून की फ्लाइट है और तुम १८ जून शाम आठ वजे जनता मेल के लिए फगवाड़े रेलवे स्टेशन पर आ जाना , और मुझे भी साथ ही जाना है क्योंकि मुझे एक काम है “. इस बात से मुझे हौसला हो गया कि प्लेन में बैठने के लिए आसानी हो जायेगी क्योंकि मैं अनाड़ी ही तो था। जोशी के दफ्तर में यह मेरा आख़री जाना था और इस के बाद ज़िंदगी में कभी यह दफ्तर देखा ही नहीं और ना ही कभी खियाल आया।
मैं घर वापस आ गिया। अब सभी रिश्तेदारों के साथ मिलना रह गिया था। मेरी सगी मासी सुरजीत कौर बाहो पुर गांव में रहती थी , इस लिए एक दिन मैं अपने बाइक पर बाहो पुर को चल पड़ा। मासी के तीन बेटे थे जो मेरे भाई लगते थे , वोह मुझे मिल कर बहुत खुश हुए। रात मैं वहां रहा और दुसरे दिन घर वापस आ गिया। तीसरे दिन मैं दिल्ली को रवाना हो गया क्योंकि वहां मेरे मामा जी की बेटी मेरी बहन रहती थी। वोह दिल्ली के बाहर ही एक नई बन रही कलोनी में रहते थे , याद नहीं यह तिलक नगर था या कोई और नगर क्योंकि उस समय यहां नए नए घर बन रहे थे और नज़दीक खेत ही खेत थे। कहीं एक घर बना हुआ था कहीं दो तीन। जगह जगह ईंटें और बजरी बिखरी पडी थी। मैंने रेलवे स्टेशन से ही ऑटो कर लिया था और वोह ऑटो चालक ढूंढ़ता पूछता हुआ मुझे बहन के घर छोड़ गिया।
बहन मुझे देख कर बहुत खुश हुई क्योंकि हम बहुत सालों बाद मिले थे ,जीजा जी घर में नहीं थे। बहन ने तरह तरह के खाने मेरे लिए बनाये और मैंने मज़े से खाना खाया। गर्मी बहुत थी और अभी बिजली फिट नहीं हुई थी। बातें करते करते बहन कहने लगी, ” तुम्हारे गाँव का लड़का सोमनाथ नज़दीक ही रहता है और वोह बहुत अच्छा पेंटर है”. सोम नाथ मेरे साथ ही पढ़ा करता था और उसको एक मास्टर के बहुत पीटने के कारण स्कूल छोड़ना पड़ा था , इस बात को कई साल हो गए थे। सोम को मिलने के लिए मैं बहन के साथ चल पड़ा।
जल्दी ही हम वहां पौहंच गए। उस वक्त सोम कोई तस्वीर पेंट कर रहा था। हम ने एक दूसरे को पहचान लिया ,सोम बहुत खुश था। कुछ देर बाद चाय आ गई। हम ने चाय पी और फिर सोम मुझे अपने ड्राइंग रूम में ले गिया। ड्राइंग रूम एक आर्ट गैलरी जैसा था। कमरे के चारों और बड़ी बड़ी पेन्टिंग्ज़ थीं ,कुछ पैंसिल शेड में बनी हुई थीं ,कुछ वाटर कलर में और कुछ ऑइल पेन्टिंग्ज़ थीं। ऐक्टर प्राण की तस्वीर जो पेंसिल से बनी हुई थी मुझे बहुत अच्छी लगी। बड़े कालरों वाली कमीज़ में प्राण बहुत स्मार्ट लगता था और उस के एक हाथ में सिगरेट थी जिस में से धुँआ निकल रहा था और मुंह से धुएं के गोल गोल लच्छे निकल रहे थे। सभी पेन्टिंग्ज़ मुझे बहुत अच्छी लगी। सोम के साथ कुछ देर बैठ कर मैं वापस आ गिया।
शाम को जीजा जी भी आ गए और हम ने बहुत बातें कीं। दूसरे दिन मैं अपने गांव वापस आ गिया। इस के बाद मैं अपने ननिहाल डींगरीआं चले गिया। मामा मामी से मिला। मामा मामी अब बूढ़े हो चुक्के थे और अकेले ही रहते थे , उनके दो लड़के यानी मेरे भाई एक तो भाखड़े नंगल में इन्जीनियर लगा हुआ था और दूसरा छोटा कहीं शहर में काम करता था। रात रह कर वापस गाँव आ गिया। फिर मैंने भाखड़ा नंगल को जाने की तैयारी कर ली , वहां मामा जी का बड़ा लड़का संतोख रहता था और भाखड़ा डैम पर इन्जीनियर लगा हुआ था। संतोख भैया और भाभी ने मुझे खूब खिलाया पिलाया। शाम को भैया मुझे अपने साथ वॉलीबाल खेलने के लिए अपने दोस्तों के पास ले गए ,हमने बहुत मज़ा किया। रात रह कर सुबह को गाँव के लिए बस पकड़ ली और शाम को घर आ गिया। बस अब कहीं नहीं जाना था.
१८ जून को घर में कुछ उदासी का माहौल था। शाम को मैं, मेरा छोटा भाई निर्मल और मेरा भतीजा जो उस वक्त पांच छै साल का था फगवाड़े को जाने के लिए तैयार हो गए। सभी ऊंची ऊंची रो रहे थे, किसी के मुंह से कोई बात निकल नहीं रही थी, यह घड़ी बहुत ग़मगीन थी, मैं रो नहीं रहा था लेकिन मेरे भीतर एक तूफ़ान सा था जिसको मैं बयान नहीं कर सकता। मैं बहुत रोना चाहता था लेकिन तेज़ बहते पानी को एक बाँध की तरह रोक कर रखे हुए था। दो बाइसिकलों पर हम घर से चल पड़े लेकिन कुछ दूर जा कर ही मेरे भीतर का रोका हुआ बाँध टूट गिया और मैं जोर जोर से रोने लगा। मुझे देख मेरा छोटा भाई भी रो पड़ा। भतीजे विचारे के तो कुछ पता ही नहीं था कि मैं कहाँ जा रहा हूँ। शहर पौहंचते पौहंचते हम समान्य हो गए।
फिर मेरे दिमाग में आया कि ट्रेन के लिए तो अभी वक्त बहुत था , क्यों न एक फोटो खिचवा लें। ट्रेन स्टेशन के नज़दीक ही एक हैलन स्टूडिओ होता था, हम वहीँ चले गए और उसको फोटो खींचने के लिए बोला। मेरे और मेरे छोटे भाई के दरम्यिान हमारा भतीजा बैठ गिया। फोटो खींच ली गई और इस के बाद हम रेलवे स्टेशन की ओर चल पड़े। रेलवे स्टेशन पर पुहंच कर मैंने दिल्ली का टिकट लिया और हम वेटिंग रूम में बैठ गए और बातें करने लगे। कुछ देर बाद जोशी भी आ गिया, उसने भी टिकट लिया और हमारे साथ आ बैठा। ट्रेन का वक्त जब हुआ तो मैंने अपनी छोटे भाई को जाने के लिए बोला। हम गले लग कर मिले, भतीजे को कुछ पैसे दिए और रेलवे प्लैट फॉर्म की ओर जाने लगे। उस वक्त की हमारी फोटो अभी भी हमारे गाँव राणी पुर में कहीं रखी हुई है।
ट्रेन आ गई ,मैं और जोशी इस में बैठ कर सफर करने लगे। सुबह हम दिली पौहंच गए। जोशी मुझे एक होटल में ले गिया और सारे दिन के लिए एक कमरा भी बुक करा लिया। ब्रेक फास्ट लेने के बाद जोशी कहीं चले गिया, उनके बहुत से काम दिली में करने वाले थे। जोशी ने मुझे कहा कि वोह शाम को आकर मुझे मिलेगा , जब तक मैं आराम से सो लूँ। सारा दिन मैं सोया रहा और तरो ताज़ा हो गया। शाम को जोशी भी आ गया और हम ने खाना खाया। तकरीबन रात छ: वजे हम एक ऑफिस में पुहंच गए, यह कौन सा ऑफस था मुझे कुछ भी पता नहीं लेकिन जोशी ने वहां के एक क्लर्क को सभ समझा दिया कि वोह मेरी पूरी मदद कर दें और वक्त पर मुझे एअर पोर्ट पर पौहंचा दें। इस के बाद जोशी ने मुझ से हाथ मिलाया और चले गिया कि उस ने किसी से मिलना था, उस ने मुझे कहा कि वोह मुझे एअर पोर्ट पर मिलेगा ।
मैं एक कुर्सी पर बैठ गिया। यह ऑफिस बहुत ही छोटा सा था , वहां दो क्लर्क ही थे। और वहां कोई नहीं था। मैं अकेला उदास बैठा रहा। कभी कभी वोह क्लर्क किसी को टेलीफून करते या किसी का आ जाता। तकरीबन ९ वजे एक गाड़ी आई और उस में बैठने के लिए मुझे कहा गिया। हम दोनों ही थे , ड्राइवर और मैं। कुछ देर बाद हम एअरपोर्ट पर पौहंचे। ड्राइवर मुझे लौंज में बिठा कर चले गिया। अभी कुछ ही मिनट हुए थे कि जोशी भी आ गया। उस ने मुझे चैक इन पर जाने को कहा। चैक इन पर मेरा अटैची केस तो उन्होंने रख लिया जो कि एयरोप्लेन में जाना था और मुझे सीट नंबर मिल गिया।
अब जोशी ने मुझे कहा कि मैं फ़ौरन करंसी ले लूँ ,जो उस वक्त तीन पाउंड मिलती थी। तकरीबन चालीस रूपए में मुझे तीन पाउंड मिल गए क्योंकि उस वक्त एक पाउंड के तेरह रूपए मिलते थे। अब मेरे पास बीस रूपए बच गए थे जो मैंने जोशी को दे दिए क्योंकि अब इनकी जरुरत मुझे नहीं थी। जोशी ने मुझ से हाथ मिलाया और चले गिया। इस के बाद हमारी मुलाकात कभी नहीं हुई। मैं भी दूसरे यात्रिओं के साथ साथ आगे चलने लगा, सभी बिदेशी थे ,एक भी इंडियन नहीं था। चलते चलते हम एक दरवाज़े पर पौहंच गए यहाँ एक खूबसूरत साड़ी में एक जवान लड़की हाथ जोड़ कर सभी को नमस्ते बोल रही थी।
अंदर दाखल हुए तो बहुत ही मज़ेदार सीटों पर अँगरेज़ लोग बैठे थे ,ऐसी सीटें मैंने ज़िंदगी में कभी भी देखी नहीं थीं। मुझे पता ही नहीं चला कि मैं एरोप्लेन में आ गिया हूँ। एक एअर होस्टैस ने मेरा सीट नंबर देखा और मुझे एक सीट पर बिठा दिया, मेरे हैण्ड बैग को ऊपर रैक में रख दिया और दूसरे यात्रिओं की मदद करने लगी। मैंने अपनी गर्दन घुमाई और चारों तरफ देखा ,सभी अँगरेज़ लोग ही थे ,एक भी इंडियन नहीं था। मुझे अभी भी यकीन नहीं हो रहा था कि मैं एरोप्लेन में ही बैठा हूँ। कभी कभी सोचता हूँ ,कि अब कितना ज़माना बदल गिया है , अब तो छोटे छोटे बच्चे सारी दुनिआ की बातें जान गए हैं लेकिन उस समय को शायद कोई समझ ही नहीं सकता। एक बात और भी लिखना चाहूंगा कि उस वक्त बेछक मैंने अंग्रेजी पड़ी थी लेकिन मैं सिर्फ लिख और पड़ ही सकता था ,बोल बिलकुल नहीं सकता था क्योंकि किसी ने भी हमें बोलने की शिक्षा नहीं दी थी।
मेरी सीट एक दरवाज़े के नज़दीक थी। कुछ देर बाद एक पायलेट ने आ कर दरवाज़े को बंद कर दिया और कुछ ही मिनटों में इंजिन की आवाज़ गूंजने लगी, अब मुझे यकींन हो गिया कि मैं एरोप्लेन में ही बैठा हूँ। किसी औरत की आवाज़ एक स्पीकर से आने लगी जो इंग्लिश में थी और मुझे इसकी कुछ समझ नहीं आई। अब कुछ हरकत सी हुई और प्लेन रनवे पर चलने लगा लेकिन इंजिन की आवाज़ इतनी ज़्यादा थी कि मेरा एक कान दर्द करने लगा जो बचपन में कभी दर्द करता रहता था। प्लेन दौड़ने लगा और दौड़ता दौड़ता एक दम ऊपर उठ गिया। मैंने विंडो से बाहर की ओर झाँका और देखा कि हम मकानों के ऊपर उड़ रहे थे जिन में से रौशनी आ रही थी क्योंकि रात का वक्त था ।
ज़िंदगी में यह मेरी पहली उड़ान थी। देखते ही देखते हम बहुत ऊपर जा रहे थे। नीचे तारे ही तारे दिख रहे थे जैसे तारे आसमान को छोड़ नीचे आ गए हों, लगता था जैसे १९ जून दीपावली की रात हो। मेरे कानों में दर्द इतनी हो रही थी कि समझ नहीं आ रही थी कि क्या करूँ। कान इतने भारी हो गए थे जैसे मैं बहरा हो गया हूँ। अब एक एअर होस्टेस हाथ में स्वीट्स ले कर आ रही थी ,हर कोई एक या दो स्वीट्स उठा लेता और थैंक्स कह देता। यह थैंक्स लफ़ज़ मुझे पहली दफा ही असल मानों में सुनने को मिला क्योंकि इस से पहले तो थैंक्स हमारे लिए कुछ भी नहीं था। मैंने भी दो स्वीट्स लीं और थैंक्स बोल दिया लेकिन शर्माते शर्माते। यह मेरा पहला थैंक्स था। कुछ घंटे बाद सुबह की लौ होने लगी। कुछ लोग हाथों में टूथ ब्रश और पेस्ट पकडे टॉयलेट की ओर जा रहे थे लेकिन मैं तो अपना ब्रश और पेस्ट अटैचीकेस में ही रख कर भूल गिया था ,वैसे ही मैं भी टॉयलेट में चले गिया और वैसे ही ऊँगली से दांत साफ़ कर लिए और वापस अपनी सीट पर आ बैठा।
ब्रेकफास्ट की ट्रे आनी शुरू हो गईं। जहाज़ की तकरीबन सभी सीटों पर दो दो यात्री बैठे थे लेकिन मेरे साथ कोई भी बैठा नहीं था पता नहीं क्यों लेकिन इस का मुझे तो फायदा ही हो गिया क्योंकि कुछ गलत भी करता तो कमज़क्म किसी और को तो पता नहीं लग सकता था। जब ब्रेकफास्ट की ट्रे मेरे आगे भी रखी गई तो मुझे कुछ भी नहीं पता था कि इस को कैसे खोलना था ,इस में क्या क्या खाने को था क्योंकि मैं तो ऐसे था जैसे एक जानवर शीश महल में आ गिया हो। मैं दूसरे मुसाफरों की ओर देखने लगा ,जब सब देख लिया तो अपनी ट्रे खोल ली। इस में आमलेट, बटर बन , बटर की छोटी सी टब , मामलेड ,नमक के छोटे से पैकेट ,शूगर कीउब्ज़ ,कुछ नाइफ फोर्क्स और स्पून थे और साथ ही हाथ साफ़ करने के लिए छोटे छोटे पैकटों में टिशू पेपर थे।
मेरे लिए सब कुछ नया था। ज़िंदगी में नाइफ फोर्क से कभी नहीं खाया था। मैंने दूसरे मुसाफरों को खाते देखा और उन की कापी करने लगा ,जल्दी ही सीख गिया और सारा आमलेट खाया जो बहुत स्वादिष्ट लगा। फिर बन को नाइफ से बीच में काटा, ऊपर बटर और मामलेड लगाया और खाने लगा ,यह भी बहुत स्वाद लगा। एक आँख से मैं गोरों की तरफ देख रहा था कि मैं सही ढंग से खा रहा हूँ या नहीं लेकिन यह मेरी भूल और झिजक ही थी वरना किसी को मुझ से क्या लेना देना था। अब एक एअर होस्टेस चाय और कॉफी ले कर आई और मैंने क्योंकि ज़िंदगी में कॉफी कभी पी नहीं थी ,इस लिए चाय का कप ले लिया। चाय पी कर टिशू से हाथ साफ़ किये और खा कर मन खुश हो गिया।
हम कराची के नज़दीक आ रहे थे और किसी ने बोला कि हम कराची एअरपोर्ट पर लैंड होने वाले हैं। मेरा कान फिर दर्द करने लगा। मैंने अपने दोनों हाथ कानों पर रख लिए। फिर मैंने एअर होस्टैस को बोलने के लिए अंग्रेजी के लफ़ज़ सोचने शुरू कर दिए। यों ही लड़की मेरी तरफ आई मैंने हाथ से इशारा किया ,वोह एक दम मेरे पास आ गई। मैं ने अपनी सोची हुई अंग्रेजी बोल दी , i have been suffering from earache since morning !.उस लड़की ने कुछ पुछा लेकिन मुझे कुछ समझ में नहीं आया। मैंने कह दिया कान में दर्द हो रहा है। वोह मुस्कराती हुई गई और कुछ देर बाद दो गोलिआं और पानी का ग्लास लेकर आ गई और मैंने गोलिआं ले लीं।
अब जहाज़ भी नीचे आना शुरू हो गिया था और कुछ मिनट बाद लैंड हो गिया। सभी लोग बैठे रहे और कुछ यात्री कराची एअरपोर्ट से जहाज़ में बैठे जिन में एक पाकिस्तानी लड़का जो होगा कोई पचीस तीस वर्ष का मेरे साथ की सीट पर आ बैठा और उस ने मुझे सलामलेकुम बोला। मैंने भी जवाब दिया ,वालेकमसलाम। अब मुझे कुछ हौसला हो गिया ,मुझे ऐसा लगा मेरा कोई अपना मेरे साथ आ बैठा है। कुछ देर बाद फिर से हम आसमान में उड़ने लगे।
चलता…
आप अपनी इस आत्म कथा को छपवाइयेगा जरूर। शब्द और वाक्य विन्यास कोई भी ठीक कर देगा ।
आज का पूरा विवरण रोचक एवं आशा के अनुरूप है। आपने जो वर्णन किया है वह जिंदगी में पहली बार हवाई यात्रा करने पर शायद सभी मिडिल वर्ग के लोगो को होता है। हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी।
मनमोहन जी , बहुत बहुत धन्यवाद .
वाह आदरणीय लाजवाब कथानक सादर नमन् जय माँ शारदे
राज जी , बहुत बहुत धन्यवाद .
बहुत रोचक कहानी भाई साहब !
विजय भाई , धन्यवाद .