कविता : काश तुम हो सकते
काश तुम हो सकते,
मेरे……….. ज़रा से,
नहीं पूरे तो भी गम नहीं,
बस………. ज़रा से,
यूँ ही चलता रहता,
कुदरत का निजाम,
सूरज मगरिब से निकलता,
तब भी और सो जाता,
थक कर मशरिक में,
वही चाँद, वही तारे,
वो हसीं हसीं नज़ारे,
कुछ भी ना बदलता लेकिन,
बहुत कुछ बदल जाता,
सूरज में कुछ और आग होती,
चाँद कुछ और चमकीला होता,
तारे खिलखिला के हँसते,
अगर तुम हो जाते,
मेरे……… ज़रा से,
काश तुम हो जाते,
मेरे……… ज़रा से,
कुछ फर्क नहीं पड़ता,
इस बेदर्द दुनिया को,
हाँ थोड़ी जलन होती,
आस-पास के लोगों को,
कुछ गुस्साते, कुछ धमकाते,
कुछ बातों के तीर चलाते,
पर जब थक जाते तो कहते,
छोड़ो हमें क्या करना है,
और फिर मशगूल हो जाते,
किसी और के किस्से में,
मगर मुझे जिंदगी मिल जाती,
अगर तुम हो जाते,
मेरे……… ज़रा से,
काश तुम हो जाते,
मेरे……….ज़रा से,
तो पूरी हो जाती,
मुहब्बत की गज़ल,
मैं मिसरा था जिसका,
और तुम काफिया शायद,
मैं अधूरा ही रह गया,
उन दो लफ्जों के बिना,
जो मिलते तुम्हारे आने से,
पर ऐसा हो नहीं पाया,
गज़ल मुक्कमल हो जाती,
अगर तुम हो जाते,
मेरे……… ज़रा से,
काश तुम हो सकते,
मेरे…………ज़रा से,
नहीं पूरे तो भी गम नहीं,
बस………. ज़रा से,
— भरत मल्होत्रा।
सुंदर रचना