कविता

धरती माँ के प्रति फर्ज

क्या हम धरती माँ के प्रति फर्ज निभा रहे हैं ???

कोई विधवा बना रहा है छीनकर इसका श्रृंगार,
कोई बाँझ बना रहा है देकर दु:ख आपार,
हम वादा करते हैं लायेंगे धरती पर स्वर्ग उतार
गंदगी फैलाकर नरक का खुद खोलते हैं द्वार,
इसकी धानी चुनरी में हम दाग लगा रहे हैं…

अपनी माँ से बिछड़कर शायद जिना है मुमकिन,
क्या पल भर भी हम जी सकते हैं धरती माँ के बिन,
फिर भी सहनशिल माँ दर्द सहती है रात-दिन,
मानव होकर भी नहीं चुकाते धरती माँ का ऋण,
फिर भी मानव होने का हम नाज दिखा रहे हैं…

हम स्वार्थी बनकर बस ढूंढ़ते हैं अपनी खुशियाँ,
वृक्षों पर चला देते हैं बिना सोचें कुल्हाड़ियाँ,
कोई नहीं सुनता है इस धरती माँ की सिसकियाँ,
इसके ही अन्न-जल से चलती सबकी जिंदगियाँ,
बुद्धिमान होकर क्यों अनोखी दुनिया मिटा रहे हैं…

हमारी नादानी से इसकी रुक जायेगी एकदिन धड़कन,
फिर क्या करेंगे रहकर ये सूरज चाँद तारे गगन,
धरती माँ को खुश कर हम बनाएँ अपना जीवन,
अपनी धरती पर चारो ओर हम उगायेंगे नंदन वन,
आनेवाली पीढ़ी के लिए हम क्या बचा रहे हैं।
क्या हम धरती माँ के प्रति फर्ज निभा रहे हैं ।।

-दीपिका कुमारी दीप्ति

दीपिका कुमारी दीप्ति

मैं दीपिका दीप्ति हूँ बैजनाथ यादव की नंदनी, मध्य वर्ग में जन्मी हूँ माँ है विन्ध्यावाशनी, पटना की निवासी हूँ पी.जी. की विधार्थी। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।। दीप जैसा जलकर तमस मिटाने का अरमान है, ईमानदारी और खुद्दारी ही अपनी पहचान है, चरित्र मेरी पूंजी है रचनाएँ मेरी थाती। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी।। दिल की बात स्याही में समेटती मेरी कलम, शब्दों का श्रृंगार कर बनाती है दुल्हन, तमन्ना है लेखनी मेरी पाये जग में ख्याति । लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।।

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