कविता

एक बार बस

मैं एक स्त्री हूँ
कोई आइना नहीं
कि मुझमें देख कर तुम
अपनी छवि निहारोगे, इतराओगे
और पलट कर चल दोगे
हिम्मत है तो
देखो मेरी रूह के आर-पार
गुज़रो मेरे अंतर्मन से भी कभी
समझो मुझे भी
यक़ीन जानो
थर्रा जाओगे भीतर तक
दहल जाओगे
जब जानोगे कि
क्या क्या छिपा रखा है मैंने
अपने भीतर
कुछ दुःख कुछ तकलीफें
इच्छाओं के कुछ खिले-अधखिले फूल
कुछ सपने आधे-अधूरे से
कुंडली मारे बैठी कुछ लालसाएं
कुछ बेड़ियां रस्म-ओ-रिवाज़ों की
कुछ रंग-बिरंगे पंख तितलियों के
जिन्हें सज़ा मिली थी
खूबसूरती की , उड़ान की
कुछ तीर अश्लील नज़रों के ,फब्तियों के
जो भेद कर अस्मिता के झीने परदे को
कर गए थे लहु-लुहान मेरा मन
कुछ विवश्ताए भी मिलेंगी तुम्हे
मेरे भीतर
स्त्री होने की
जिन पर अब ज़ंग लग चुका है
कहीं ना कहीं कुछ टुकड़े
संतोष के भी मिलेंगे तुम्हे
हाँ देखो
कुछ किरचें भी मिलेंगीं
इन किरचों से ज़रा बच कर निकलना
जो फैलीं हैं इधर उधर
हर तरफ……
बस कुछ नहीं
ये यादें हैं उन दिनों की
जब कभी मैंने
कुछ क्षण जिए थे तुम्हारे साथ
प्यार के,मनुहार के,विश्वास के
खैर छोड़ो !!
और भी बहुत कुछ है
मेरे भीतर
लिस्ट लम्बी है
फिलहाल इतना ही
बाक़ी फिर कभी
देखो , पलट मत जाना
एक बार
मेरी रूह से गुज़र कर देखो ,बस !!

….. नमिता राकेश