गजल
अगर हम चाहते हैं, साफ सुथरा हो वतन अपना,
तो रखिए साफ अपनी आदतें और पैरहन अपना।
बकौल-ए-शेख़, जन्नत से नहीं बेहतर जगह कोई,
अगर हमसे कोई पूछे तो, घर अपना, वतन अपना।
ये तय है, जो भी असर है, वो सरमाया मरासिम का,
खुशी हो, इंतज़ारी हो, कि हो रंजो-महन अपना।
ज़माना रोकता है सैर से क्यूँ हम दिवानों को,
ज़मीं अपनी, हवा अपनी, ये गुल अपने, चमन अपना।
तुझे मालूम भी न होगा कब बहके कदम तेरे.
ज़माने की निगाहों से बचा तू बाँकपन अपना।
रकीबों की गली में यार का पूछे पता कोई !
कि रंगत लाएगा, ऐ यार, ये दीवानापन अपना।
ये माना ‘होश’, इक से एक शाइर हैं यहाँ, लेकिन,
शहर वालों के लब पर होगा बस हावी सुखन अपना।
— मनोज पांडेय ‘होश’
पैरहन – वस्त्र ; बकौले-शेख – मौलवी के अनुसार ; सरमाया – हासिल ; मरासिम – रिश्ता : रंजो-महन – दुःख दर्द ; बाँकपन – निश्छल साहस ; सुखन – कविता, शाइरी