ग़ज़ल
कौन ऐसा है जहां में कि जिसे कुछ गम नहीं
मुझे तसल्ली देने वाले तेरा दुख भी कम नहीं
खुद पे इतराने से पहले देख ले ये भी ज़रा
है कौन सी दीवार जिसपे साया-ए-मातम नहीं
साथ चल के दो कदम हो जाती हैं राहें जुदा
जिंदगी भर साथ दे ऐसा कोई हमदम नहीं
रात के कानों में की हैं उसने कुछ सरगोशियां
गमगीन हैं तारे सभी बाद-ए-सबा पुरनम नहीं
ऐ इश्क तेरे कायदे हमको समझ ना आएँगे
हमपे लाज़िम है वफा उसपे कुछ लाज़िम नहीं
— भरत मल्होत्रा।
बहुत सुंदर ग़ज़ल !
बहुत बढ़िया