जो खुद है बेवफ़ा
हमारे आशियानों में अपना घर रखेंगे,
सच में वो आसमानों में पर रखेंगे?
रख के मेरे कदमों के नीचे काँटे
वो मेरे कंधे पे अपना सर रखेंगे
कर के लहूलुहान मेरे जज़्बातों को
अपने ही हाथों उसे अब धर रखेंगे
शायद मुकर जाए वो अपने इरादे से
हम अपनी आँखें अश्कों से तर रखेंगे
इधर कुआँ है तो उधर है खाई
अपनी वफायें हम किधर रखेंगे?
तुम अपने पैरों को बाँधकर रक्खो
हम तुम्हारे आगे लम्बा सफर रखेंगे
जो खुद ही गुरु हो बेवफाओं का
वो क्या वफ़ा हमसे कर रखेंगे
— अखिलेश पाण्डेय
मैंने पंक्तियों को बराबर करने की कोशिश की है।
इसकी पंक्तियाँ छोटी बड़ी हो गयी हैं। ग़ज़ल में सबकी लम्बाई समान होनी चाहिए।