अकथ्य मेरी वेदना
प्राण पंछी है विकल, असह्य मेरी वेदना
मौन मुखरित है प्रिये, अकथ्य मेरी वेदना
नीर नैनों में भरे मैं,समुद्र तट की ओर आता
जलधि का घनघोर गर्जन, तन में कंपन सा उठाता
वेग से बहता प्रभंजन, केश पट मेरे उड़ाता
निष्कंप अग्नि सी अविचलित, स्थिर है मेरी वेदना
मौन मुखरित है प्रिये, अकथ्य मेरी वेदना
ज्ञात है आनंद पीड़ा का तो फिर क्या भय हमें
अब नहीं है भीत प्राणों की ये तुम कह दो उन्हें
शीश हाथों में लिए आ जाऊँ मिलने को तुम्हें
करबद्ध होकर पर नहीं आएगी मेरी वेदना
मौन मुखरित है प्रिये, अकथ्य मेरी वेदना
मेरी इस जीवन धरा को दुखों का क्यों व्योम घेरे
क्षितिज पर मिल से गए विलोम और अनुलोम मेरे
अंतस्थल के भाव बदले सिहर उठे सब रोम मेरे
अवरूद्ध मेरे कंठस्थल में जैसे है मेरी वेदना
मौन मुखरित है प्रिये, अकथ्य मेरी वेदना
शब्द तो निर्जीव, लिख डाले थे मैंने एक क्षण में
पीड़ा का विस्तार किन्तु अस्तित्व के प्रत्येक कण में
तुम चुरा कर ले गए वो गीत, दोहे, छंद मेरे
किस तरह परन्तु चुरा पाओगे मेरी वेदना
मौन मुखरित है प्रिये, अकथ्य मेरी वेदना
— भरत मल्होत्रा
मार्मिक वेदना