गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

मुखौटा इस ज़माने में कभी अच्छा नहीं लगता।
हकीकत हो फ़साने में कभी अच्छा नहीं लगता।।

छोड़ घर को गया था जो गुलामी दे दिया उसको।
मुहाज़िर हो निशाने में कभी अच्छा नहीं लगता।।

शरीफ़ो के लहू से हाथ हो जिसके सने अक्सर।
वो जाए फिर मदीने में कभी अच्छा नहीं लगता।।

शरीयत से तुम्हारा वास्ता मुमकिन नहीं शायद।
तू अपने कत्लखाने में कभी अच्छा नहीं लगता।।

कद्र होगी मुख़ालिफ़ की तू रख ज़ायज उसूलों को।
नीयत के डगमगाने में कभी अच्छा नहीं लगता।।

दुश्मनी पर वजूदे शाख़ जिन्दा हो यहां जिसकी ।
दोस्त कहकर बुलाने में कभी अच्छा नहीं लगता ।।

बहुत नापाक होगा ये जो तुझको पाक मैं कह दूं ।
राज दिल का छुपाने में कभी अच्छा नहीं लगता ।।

सपोले पालने वालों से दुनिया हो चुकी वाकिफ़ ।
उसे फिर बरगलाने में कभी अच्छा नहीं लगता ।।

शिकस्तों से मुहब्बत है तुम्हारे मुल्क को अच्छी ।
तुम्हें अब आजमाने में कभी अच्छा नहीं लगता।।

नवीन मणि त्रिपाठी

*नवीन मणि त्रिपाठी

नवीन मणि त्रिपाठी जी वन / 28 अर्मापुर इस्टेट कानपुर पिन 208009 दूरभाष 9839626686 8858111788 फेस बुक [email protected]

One thought on “ग़ज़ल

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    उम्दा गज़ल

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