ग़ज़ल
मैं ये जाहिर नहीं करता कि मैं सब याद रखता हूँ
पहले भूल जाता था मगर अब याद रखता हूँ
भरोसा उठ गया जबसे मेरा इंसानियत पर से
महफिल में हर इक बंदे का मजहब याद रखता हूँ
घुमा कर बात करने के चलन जबसे बढ़ा तबसे
मैं लफ्ज़ों से ज्यादा उनका मतलब याद रखता हूँ
कभी झुकना, अकड़ जाना या हाँ में हाँ मिला देना
मैं पापी पेट की खातिर ये करतब याद रखता हूँ
चलते वक्त नम आँखों से माँ कुछ बुदबुदाई थी
मैं अब तक वो दुआ में कांपते लब याद रखता हूँ
— भरत मल्होत्रा