सामाजिक

तपस्वी श्री रविप्रकाश आर्य- आर्यसमाज के मूक साधक एवं प्रचारक

ओ३म्

प्रायः यह माना जाता है कि आर्य समाज का प्रचार इसके उपदेशक, नेता व विद्वान लेखक आदि ही किया करते हैं। हमें यह बात आंशिक रूप से सत्य प्रतीत होती है। इनके अलावा भी बहुत से आर्यसमाज से मिशनरी भाव से जुड़े हुए लोग होते हैं जिनकी शैक्षिक योग्यता भले ही कुछ कम हो, परन्तु वह अपने सम्पर्क में आने वाल व्यक्तियों पर अपनी तर्कणा शक्ति सहित अपने अच्छे आचरण व कार्यों का विशेष प्रभाव भी छोड़ते हैं। आर्यजगत में एक नाम श्री मामराज जी का आता था। उन्होंने महर्षि दयानन्द जी लिखित पत्रों को ढूंढने वा उन्हें प्राप्त करने pustakmelaको ही अपने जीवन का मिश
न बनाया था जिसमें वह सफल भी हुए और उनके इस कार्य के लिए आर्यसमाज सदैव उनका ऋ़णी है। श्री मामराज जी कोई सिद्ध उपदेशक, प्रचारक, विद्वान व लेखक नहीं थे परन्तु वह जो कार्य कर गये हैं उसके प्रताप से आज हमारे पास महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के पत्रों की बहुत बड़ी राशि उपलब्ध है जिससे हमारे सभी विद्वान, अनुसंधानकर्ता व ऋषि के जन्म चरित्र लेखक लाभान्वित हुए हैं वा बहुत सी ऋषि जीवन की घटनाओं की संगति लगाने में सहायता मिली है। हम स्वयं भी आर्यसमाज से प्रभावित होकर इस संस्था के सदस्य बने तो वह भी समाज के एक सदस्य श्री धर्मपाल सिंह जो हमारे पड़ोसी होने के साथ हमारे विद्यालय में कला संभाग में विद्यार्थी थे। उनकी मित्रता व निकटता और उनकी आर्यसमाज के प्रति निष्ठा ही हमारे आर्यसमाज का सदस्य बनने का कारण रही है। श्री धर्मपाल सिंह के इस कार्य के लिए हमारे विद्वान भले ही उन्हें आर्यसमाज का प्रचारक न माने परन्तु हमें तो वह एक उच्च कोटि के न सही, साधारण प्रचारक तो लगते ही हैं। आज के इस लेख में हम एक ऐसे ही अज्ञात मूक प्रचारक श्री रविप्रकाश आर्य का उल्लेख कर रहे हैं जो अपने कार्यों, लगन व निष्ठा से हमें आर्यसमाज के एक लघु प्रचारक प्रतीत होते हैं।

श्री रविप्रकाश आर्य से हमारा परिचय देहरादून पुस्तक मेले में 12 सितम्बर, 2015 को हुआ जब हम उद्घाटन दिवस पर वहां पहुंचे थे। यह पुस्तक मेला 20 सितम्बर, 2015 को समाप्त हुआ। इससे तीन चार दिन पूर्व दिल्ली के प्रसिद्ध आर्य विद्वान डा. विवके आर्य जी ने फोन पर हमें इस पुस्तके मेले की सूचना देते हुए पुस्तक मेले के सभा के स्टाल के प्रभारी को सहयोग करने का अनुरोध किया था। इसी से प्रेरित होकर हम पुस्तक मेले में पहुंचे, आर्यसमाज के स्टाल पर गये, वहां स्टाल प्रभारी श्री रविप्रकाश आर्य से मिले, उन्हें अपना परिचय दिया, उनके आवास व भोजन आदि की व्यवस्थाओं व किन्हीं असुविधाओं व आवश्यकताओं के बारे में पूछा और कुछ घण्टे वहां रहकर घर लौट आये थे। इसके बाद हम नियमित रूप से वहां जाते और कुछ घण्टे तक वहां रहकर आ जाते थे। हमने देखा कि श्री रविप्रकाश बहुत ही कर्तव्य निष्ठ आर्यपुरूष हैं। दूसरे या तीसरे दिन जब हम पूर्वान्ह पहुंचे तो ज्ञात हुआ कि उनकी पाचन क्रिया ठीक नहीं है। सिर भारी है, कुछ उल्टी की भी शिकायत होने के साथ खट्टी डकारें आ रही थीं। उन्होंने उस दिन भोजन भी नहीं किया और देशी उपचार अमृतधारा’ आदि का सेवन कई बार किया। फिर उन्होंने डा. विवेक आर्य जी से रोग के उपचार के बारे में पता किया और उनकी बताईं दवायें लेकर स्टाल पर कुछ ही मिनटों में लौट आये। ऐसी विपरीत परिस्थियों में रात्रि 8 बजे तक उन्होंने जम कर कार्य किया, कारण यह भी था कि उनका सहयोग करने वाला वहां अन्य कोई नहीं था। हमने देखा कि जो भी व्यक्ति स्टाल पर आकर पुस्तकें देखता है, तो वह उसे उस पुस्तक और अन्य प्रमुख पुस्तकों के महत्व के बारे में प्रभावशाली रूप से बताते हैं जिससे वह कुछ पुस्तकें अवश्य ही क्रय करता है। इस प्रकार 12 से 20 सितम्बर, 2015 के 9 दिनों तक वह 11 बजे पूर्वान्ह से रात्रि 8 बजे तक पूरे मनोयोग से कार्य करते रहे। उनके निवास की जिस आर्यसमाज में व्यवस्था की गई थी उसके बारे में हमें लम्बा अनुभव है। वहां मात्र उन्हें कमरा दिया गया था। अन्य जलपान व भोजन की कोई सुविधा नहीं थी। अतः ऐसा व्यक्ति जो निष्ठा व मिशनरी भाव से आर्यसमाज के प्रचार का कार्य अथवा इस प्रकार का सात्विक तप करता हो, वह आर्यसमाज द्वारा प्रशंसा व साधुवाद का अधिकारी तो होता ही है। ऐसे ही हमारे श्री रविप्रकाश आर्य जी भी हैं।

आईये, श्री रवि प्रकाश जी के व्यक्तिगत जीवन पर भी एक दृष्टि डाल लेते हैं। 39 वर्षीय श्री रविप्रकाश जी का जन्म 6 मार्च, 1976 को मुरादाबाद में पिता श्री राजेन्द्र सिंह एवं माता श्रीमति सुमेधा जी के यहां हुआ था। आप तीन भाई व एक बहिन में सबसे बड़े हैं। आप विवाहित हैं, आयु के 24 वें वर्ष सन् 2000 में आपका विवाह हुआ।  आपके 14 व 11 वर्ष के दो पुत्र हैं जो कक्षा 8 व 6 में पढ़ते हैं। पूछने पर आपने बताया कि आपके नानाजी आर्यसमाजी थे। स्वाभाविक रूप से आपकी माताजी में आर्यसमाज व सन्ध्या, हवन आदि के संस्कार अवश्य ही रहे होंगे जिसका प्रभाव आप पर पड़ा। आपके प्रपितामह भी आर्यसमाजी व ऋषिभक्त थे। इनका भी कुछ प्रभाव आपमें आया हुआ प्रतीत होता है। आपने मैट्रिक तक की शिक्षा प्राप्त की है और आप नवम्बर, 2013 में आर्यसमाज वा दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा से जुड़े। आपमें स्वाध्याय व पढ़ने का शौक है परन्तु सुनना आप अधिक पसन्द करते हैं।

श्री रवि प्रकाश जी दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा की ओर से लगभग 16 पुस्तक मेलों में जाकर आर्यसमाज की पुस्तकों के स्टाल के माध्यम से आर्यसमाज के प्रचार व प्रसार में योगदान कर चुके हैं। जिन पुस्तक मेलों में आपने अपनी सेवायें दी हैं उनमें प्रमुख हैं श्रीनगर कश्मीर, मुम्बई, हैदराबाद, अहमदाबाद, कटक उड़ीसा, तिरूवननन्तपुरम्, मण्डी हिमाचल प्रदेश, गुवाहटी, शिलांग, चेन्नई, दिल्ली, देहरादून व उदयपुर। पुस्तक मेलों की चर्चा करने पर हमें ज्ञात हुआ कि सन् 2014 में आयोजित कश्मीर पुस्तक मेले के सभी स्टाल प्रभारियों को कश्मीर के अलगाववादी नेता सैय्यद अहमद शाह गिलानी ने अपने निवास पर एक दावत में आमंत्रित किया था। आप भी लगभग 60 लोगों के साथ उनकी दावत के आयोजन में पहुंचे थे। वहां एक भाषण में श्री गिलानी ने कहा कि हम कश्मीर में आजाद नहीं है। आजादी के लिए लड़ रहे हैं। हम स्वयं को भारत की अपेक्षा पाकिस्तान के अधिक नजदीक पाते हैं। उन्होंने कुछ इस प्रकार की और बातें उस अवसर पर की। इस प्रकार की अनेक बातें सुनकर सभी श्रोता मौन थे परन्तु श्री रवि प्रकाश जी ने उनसे कहा कि आजादी से पहले कश्मीर तो महाराजा हरि सिंह जी का था। उन्होंने इसका पूर्ण विलय भारत में किया। इस प्रकार से कश्मीर के सभी निवासी भारत के निवासी व नागरिक हुए। कश्मीर के कुछ नागरिकों का स्वयं को आजाद अनुभव न करना कहां तक युक्ति संगत है? यह कमाल का प्रश्न व उसका उत्तर जो श्री रविप्रकाश जी ने किया वह उच्च स्तर का साहसपूर्ण कार्य है। श्री गिलानी से उन्हें इसका गोलगोल राजनतिक उत्तर भी मिला। इस घटना से श्री रविप्रकाश जीएक आर्यप्रचारक होने व साथ ही अच्छी सूझबूझ रखने वाले उच्चकोटि के व्यक्तित्व के धनी पुरूष सिद्ध होते हैं।

हमारा यह लेख लिखने का उद्देश्य यह बताना मात्र है कि आर्यसमाज ऐसे वीर साहसी निष्ठावान मिशनरी भाव के सदस्यों, कार्यकत्र्ताओं एवं प्रचारकों से भरा हुआ है। ऐसे लोगों को आर्यसमाज से समय समय पर प्रोत्साहन मिलना चाहिये जिससे वह कहीं अधिक महत्वपूर्ण कार्य कर सकते हैं। हमारी मित्र मण्डली में ऐसे कई व्यक्ति हुए हैं जो इसी प्रकार उच्च भाव रखने वाले रहे हैं जिन्होंने बिना प्रकाश में आये मूक भाव से आर्यसमाज की प्रशंसनीय सेवा की है। हमें इस अवसर पर स्वामी विद्यानन्द विदेह जी की एक पुस्तक आर्य समाज के अज्ञात महापुरूष’ की स्मृति हो आई जिसे हमने सन् 1975-80 के मध्य में पढ़ा था। इसमें स्वामीजी ने अज्ञात लोगों के उज्जवल जीवन व कृतित्व का वर्णन किया था। हम भी श्री रविप्रकाश आर्य जी में कुछ सराहनीय गुण देखते हैं जिनका वर्णन हमने लेख में किया है। हम श्री रविप्रकाश जी को अपनी हार्दिक शुभकामनायें देते हैं और उम्मीद करते हैं कि भविष्य में वह इसी प्रकार से आर्यसमाज की प्रशंसनीय सेवा करते रहेंगे। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून.

7 thoughts on “तपस्वी श्री रविप्रकाश आर्य- आर्यसमाज के मूक साधक एवं प्रचारक

  • मनमोहन भाई , आप ने इबन्बतुता के बारे में पुछा था ,आप बीबीसी की दौकुमैन्त्री भे देख सकते हैं जो तीन पार्ट में है, इस में कुछ कुछ इंडिया के बारे में भी है . दाकुमेंत्री है the man who walked across the world.

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। जानकारी देने के लिए हार्दिक धन्यवाद। मैं इस डाक्यूमेंट्री को देखने का प्रयास करता हूँ।

  • मनमोहन जी , लेख पड़ा . सैअद गिलानी साहब जैसे लोग भारत में अराजकता फैला रहे हैं और यह नहीं सोचते कि उन को अपनी बात कहने में कितनी आजादी है भारत में . ज़रा धियान कीजिये ,कि यही बात कोई हिन्दू पाकिस्तान में कहे तो उस के साथ किया होगा.

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लेख, मान्यवर ! रवि प्रकाश जी के बारे में जानकर अत्यंत प्रसन्नता हुई। उनको मेरा विनम्र प्रणाम !

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री विजय जी। कोई भी संस्था अपने बुद्धिमान, उत्साही तथा कर्तव्यनिष्ठ कार्यकर्त्ताओं के द्वारा भी प्रगति व उन्नति करती है। ऐसी भी हमारे श्री रविप्रकाश आर्य जी हैं. आपकी प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद।

  • मनमोहन जी , लेख पड़ा . सैअद गिलानी साहब जैसे लोग भारत में अराजकता फैला रहे हैं और यह नहीं सोचते कि उन को अपनी बात कहने में कितनी आजादी है भारत में . ज़रा धियान कीजिये ,कि यही बात कोई हिन्दू पाकिस्तान में कहे तो उस के साथ किया होगा.

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। यह जो हो रहा व होता है उसका कारण हिन्दुओं का नरम स्वभाव तथा कुछ वोट बैंक की राजनीति के कारण है वरना बुरा तो प्रत्येक हिन्दू को लगता है। यह भी तथ्य है कि हिन्दुओं ने इतिहास से कुछ नहीं सीखा। आपका हार्दिक धन्यवाद।

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