ग़ज़ल
अपने उजड़े हुए दयार की कहानी हूँ मैं,
चीर कर रख दे दिल को उस ग़म की निशानी हूँ मैं।
आरज़ू बन कर जो कभी दिल में निहाँ रहता था
ख़िज़ाँ ने लूट ली जो बहार उसी की दास्ताँ-ऐ तबाही हूँ मैं।
नज़र के सामने कौंधी एक बिजली की लकीर हूँ मैं,
ख़ुदारा कोई बता दे मेरे माज़ी से कि अब बेमानी हूँ मैं।
हंसने की फ़ितरत मेरी साज़े-ज़िन्दगी का इक शिकस्ता तार हूँ मैं,
छुपाए हुए नासूर-ऐ-ग़म अपने सीने में “नाज़” जीस्त की रवानी हूँ मैं।
— प्रीति दक्ष “नाज़”
निशानी , तबाही , बेमानी , रवानी
तुकबन्दी होना चाहिए क्या गज़ल में ?
ग़ज़ल
भरत मल्होत्रा October 19, 2015 1 Comment
ज़िंदगी कतरा-कतरा पिघलती रही
शाम ढलनी ही थी शाम ढलती रही
कुछ ना कहा मैंने लब सिल लिये
आँखों के रस्ते हसरत निकलती रही
किस्मत में था उसके फक्त इंतज़ार
खल्वत-ए-शब में भी शमा जलती रही
यादों ने शोर करके ना सोने दिया
नींद आँखों में करवट बदलती रही
कुछ ऐसी पड़ी अपने रिश्तों में गाँठ
जितनी सुलझाई उतनी बदलती रही
यूँ तो सब कुछ मिला ज़िंदगी में मुझे
एक तेरी कमी थी जो खलती रही
— भरत मल्होत्रा।
maa ghazal me tuk bandi hoti hai ढलती निकलती जलती बदलती खलती isko aap tukbandi nahi kahengi kya?