गीत
भोर की चंचल किरन ने तन छुआ औ मन छुआ |
ले गई मुझको नदी तट प्रात का मस्तक छुआ |
छू लिया उसने अधर हर
तरु तृणों औ पात का,
बैठ कर फिर जल किनारे
भैरवी का चषक छुआ |
भोर की चंचल किरन ने तन छुआ औ मन छुआ |
ले गई मुझको नदी तट प्रात का मस्तक छुआ |
मन मदिर हो बावरा सा
डोलता ज्यों नाव हो |
नभ सुनहरी भर रहा था
रग मेरे हर रस छुआ |
भोर की चंचल किरन ने तन छुआ औ मन छुआ |
ले गई मुझको नदी तट प्रात का मस्तक छुआ |
रंग बिखरे पुष्प में जो
टंक गये दृग कोर में
हर तरफ फैली धरा पर
स्निग्धता ने मन छुआ |
भोर की चंचल किरन ने तन छुआ औ मन छुआ |
ले गई मुझको नदी तट प्रात का मस्तक छुआ |
— छाया शुक्ला “छाया”
Nice song
आदरणीय सूर्य नारायण प्रजापति जी
गीत पसंद कर उत्साह वर्धन के लिए हार्दिक आभार !
सादर नमन !
बहुत सुंदर गीत !
आदरणीय विजय सिंघल जी
गीत पसंद कर उत्साह वर्धन के लिए हार्दिक आभार |
सादर नमन !