दुर्गा स्तुति
मैं निर्धन नहीं लाया माँ चुनरी चुड़ी हार,
बस दिल में श्रद्धा लेकर चले आये तेरे द्वार।
स्वर में माधुर्य नहीं माँ कैसे करुँ तेरी स्तुति,
गलती मेरी माफ करना न जानूं पूजा-विधि।
तुम्हारे क़ई धनवान उपासक आते हैं तुम्हें सजाने को,
मेरी भी अभिलाषा है दुर्गे माँ तुम्हें कुछ चढ़ाने को।
तेरे चरणों में अर्पित करते हैं अपना तन-मन,
हो सके तो स्वीकार करना मेरा ये समर्पण।
नहीं चाहिए धन वैभव बस भक्ति का रस घोल दे,
मूर्ति से निकलकर माँ एकबार मुझसे बोल दे।
-दीपिका कुमारी दीप्ति
आपका हार्दिक आभार !
कविता अच्छी लगी दीपिका जी .