धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

अज्ञान और अंधविश्वास आध्यात्मिक उन्नति में बाधक

ओ३म्

मनुष्य के जीवन का उद्देश्य सांसारिक एवं आध्यात्मिक उन्नति करना है। यदि कोई मनुष्य आध्यात्मिक उन्नति की उपेक्षा कर केवल सांसारिक उन्नति में प्रयत्नशील रहता है तो यह उसके लिए एकांगी होने से घातक ही कही जा सकती है। आध्यात्मिक उpasubaliन्नति से मनुष्य सुख व शान्ति के साथ आत्मा की जन्म जन्मान्तरों में उन्नति व जन्म मरण के दुःखों से मुक्ति प्राप्त करता है और सांसारिक उन्नति से क्षणिक व अल्पकालिक सुखों को प्राप्त कर शुभ व अशुभ कर्मों का संचय कर इनके फलों के भोग में फंस कर जन्म जन्मान्तरों में दुःख पाता है। मनुष्य सांसारिक उन्नति तक इस लिए सीमित रहता है कि उसे इस उन्नति के लाभ व हानि एवं आध्यात्मिक उन्नति के महत्व का ज्ञान नहीं है। यह ज्ञान आध्यात्मिक गुरू, शास्त्र, ग्रन्थों व इनके स्वाध्याय से प्राप्त होता है जिसके लिए आज के मनुष्यों के पास समय नहीं है। आज के भौतिक दृष्टि से सम्पन्न व सफल मनुष्यों का अन्धानुकरण ही समाज के शेष मनुष्य करते हैं जिससे वह भी इन लोगों के कारण अपना वर्तमान व भावी जन्मों को बड़ी सीमा तक हानि पहुंचाते हैं।

 

अन्धविश्वास, अन्धी श्रद्धा तथा ज्ञानरहित आस्था सत्य ज्ञान के विरुद्ध विश्वासों को कहते हैं। ईश्वर का अस्तित्व है, उसे मानना सत्य ज्ञान और न मानना व कुतर्क करना अन्धविश्वास व अन्धी आस्था है। इसी प्रकार ईश्वर तो है परन्तु वह कैसा है, इस विषय में लोगों की अपनी-अपनी मान्यताओं जिनमें कुछ बातें सत्य व कुछ असत्य होती हैं। यह असत्य बातें ही अज्ञान, ज्ञानरहित आस्था व अन्धी श्रद्धां होती हैं। आज के ज्ञान व विज्ञान के युग में यह अन्धविश्वास व अन्धी आस्थायें समाप्त हो जानी चाहियें थी परन्तु इनको मानने वाले गुरू वा आचार्यों के अज्ञान, स्वार्थ व कुतर्कों के कारण इनके अनुयायी अन्धकार में फंसे हैं जिससे इनका मानव योनि का अनमोल जीवन मूल उद्देश्य व उसकी प्राप्ति से दूर चला गया है व चला जाता है। इससे जो हानि होती है वह गुरू व चेले, दोनों को ही होती है क्योंकि ईश्वर के कर्म-फल विधान के अनुसार जिसने जैसा कर्म किया है उसका तदनुरूप फल उसे मिलता है। अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं।’ अर्थात जीवात्मा को अपने किये हुए शुभ अशुभ कर्मों के फल अवश्य ही भोगने होंगे।  यदि कोई गुरू कहलाने वाला व्यक्ति अपने अनुयायी को असत्य व अज्ञान से युक्त रखता है तो इसके लिए वह भी दोषी है। यह भी जानने योग्य है कि अज्ञानी व स्वामी मनुष्य चाहे वह किसी कुल में जन्में हों, धर्म गुरू कहलाने के योग्य नहीं होते। धर्मगुरू कहलाने के लिए मनुष्य का धर्म का यथार्थ ज्ञान रखने वाला, निर्लोभी तथा परोपकारी भाव वाला होना आवश्यक है। अज्ञानी व स्वार्थी गुरू के दोष व अन्धविश्वासों से युक्त शिक्षायें अशुभ कर्म व पाप की श्रेणी में होती हैं जिसका फल उसको जन्म-जन्मान्तर में दुःखों के भोग के रूप में ही प्राप्त होना है। अतः सभी गुरूओं को स्वयं में विवेक जागृत कर अशुभ कर्मों से बचना चाहिये जिससे उनकी स्वयं की रूकी हुई आध्यात्मिक उन्नति यथार्थ आध्यात्मिक उन्नति में बदल जाये।

 

सांसारिक व आध्यात्मिक उन्नति के लिए सत्य ज्ञान की आवश्यकता होती है। सांसारिक ज्ञान आजकल की अनेक स्कूली पुस्तकों आदि में मिल जाता है। इससे इतर सामाजिक व्यवहार व आध्यात्मिक ज्ञानbalvivah के लिए हमें स्वाध्याय की श्रेष्ठ पुस्तकों की सहायता लेनी चाहिये। हमने अपने अनुभव से जाना है कि इसके लिए सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, उपनिषद, मनुस्मृति, 6 दर्शन, चार वेद उनके भाष्य आदि उत्तम ग्रन्थ है। आध्यात्मिक उन्नति के लिए हम इसके दो भाग कर सकते हैं। प्रथम भाग में अध्यात्म से जुड़े ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सत्य स्वरूप का ज्ञान, जन्म व मृत्यु का प्रयोजन, नाना प्राणी योनियों में जीवात्मा का जन्म, सृष्टि की उत्पत्ति का प्रयोजन, आध्यात्मिक उन्नति के साधनों व उपायों का ज्ञान आते हैं। द्वितीय भाग में आध्यात्मिक उन्नति के सत्य साधनों व उपायों को जानकर तदानुसार साधना व आचरण करना है। आध्यात्मिक उन्नति के लिए मनुष्य को अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय ईश्वर प्रणिधान को अपनाना अर्थात् आचरण में लाना होगा। कुछ-कुछ तो यह सभी सांसारिक लोग मानते व आचरण करते हैं परन्तु उच्च आध्यात्मिक उन्नति के लिए इसे पूर्णरूप से पालन करना आवश्यक है। यदि इसमें से किसी एक व सबको, कुछ व अधिक छोड़ते व पालन नहीं करते, तो उतनी-उतनी मात्रा में हम ईश्वर से दूर होते जाते हैं जिसका परिणाम आध्यात्मिक गिरावट होकर अशुभ कर्मों को करना व उसमें फंसना ही होता है। अतः सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय कर इन सब साधनों को गहराई से जानकर इसका पालन करना चाहिये जिससे अभ्युदय व निःश्रेयस की यात्रा सुगम रूप से अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की ओर चल व आगे बढ़ सके। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि प्रत्येक गुरू भक्त अपने गुरू के ज्ञान व उसके जीवन तथा आचरण पर भी पूरा ध्यान रखे और विचार करे कि वह उसे उचित व सत्य शिक्षा व मार्गदर्शन दे रहा है या नहीं। यदि वह अपने गुरु की ओर से आंखे बन्द रखेगा तो उसका शोषण होता रहेगा जिसका परिणाम उसकी आध्यात्मिक उन्नति न होकर भावी जीवन में हानि के रूप में सामने आयेगा।

 

यह भी विचार करना चाहिये कि धर्म क्या है व किसे कहते हैं। हमारा अध्ययन अनुभव बताता है कि धर्म सत्य के पालन को कहते हैं। हमें अपने कर्तव्यों का ज्ञान होना चाहिये। उन कर्तव्यों के पालन में हानि लाभ की बुद्धि रखकर सच्ची निष्ठा से उनका पालन करना ही धर्म होता है। अज्ञानी मनुष्य अपने कर्तव्य से भी पूर्णतः परिचित नहीं होता। इसके लिए ही सच्चा गुरू वा स्वाध्याय सहायक होते हैं। परन्तु यदि गुरू स्वयं अज्ञानी हो, साथ में स्वार्थी भी हो व अपने अनुयायी से भौतिक द्रव्यों की अपेंक्षा करता हो तो वह अपने अनुयायी, शिष्य व भक्त का सही मार्गदर्शन नहीं कर सकता। आजकल अनेक धार्मिक ग्रन्थ में सच्ची शिक्षाओं की कमी होने के साथ कुछ ऐसी बातें भी हैं जो धर्म कर्म से सम्बन्ध न रखकर, मनुष्य-मनुष्य को आपस में दूर करती व बांटती हैं। लोगों ने इन्हें भी धर्म समझ रखा है जो कि उनका अपना भारी अज्ञान है। धर्म का उद्देश्य तो श्रेष्ठ मानव का निर्माण होता है। वेद में इसे कहा गया है कि ‘‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्”। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही ईश्वर ने सृष्टि की आदि में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य अंगिरा को क्रमशः एकएक वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद अथर्ववेद का ज्ञान दिया था जिनमें ज्ञान, कर्म, उपासना तथा विज्ञान का ज्ञान है। वेदों में कोई भी बात अज्ञान, अन्धविश्वास, अन्धी आस्था, कुरीति, पाखण्ड, सामाजिक विषमता, सामाजिक अन्याय आदि की नहीं है। चारों वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। अतः चारों वेद, उनके व्याख्या व टीका ग्रन्थ व्याकरण, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति, सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय व अध्ययन करना चाहिये क्योंकि यह सब वेद मूलक ग्रन्थ हैं और इनके बनाने वाले वेदों के मूर्धन्य विद्वान व पूर्ण ज्ञानी मनुष्य थे।

 

महर्षि दयानन्द ने वेदों का प्रचार किया और वेदों पर आधारित सत्य ज्ञान से पूर्ण ग्रन्थों की रचना की। उनका उद्देश्य किसी व्यक्ति को उसके मत व पन्थ से छुड़ाना नही था अपितु वह सभी मनुष्यों में ज्ञान व विवेक उत्पन्न करना चाहते थे जिससे वह अपने जीवन के बारे में सही निर्णय ले सकें और सांसारिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार की उन्नति कर सकें जो कि मनुष्यों के मत-मतान्तरों में फंसे होने से नहीं हो पाती। आध्यात्मिक उन्नति करने वाले मनुष्य के लिए दो मुख्य कर्तव्य हैं जिनमें प्रथम है ईश्वरोपासना वा सन्ध्या तथा दूसरा दैनिक अग्निहोत्र। इन दोनों को करके ही मनुष्य की सांसारिक व आध्यात्मिक उन्नति होती है। सन्ध्या को करना आत्मा की उन्नति का सर्वश्रेष्ठ साधन उपाय है। इसमें ईश्वर जीवात्मा के स्वरूप का चिन्तन, ईश्वर के उपकारों का स्मरण, परोपकार सेवा करने के व्रत लेना अपने सभी श्रेष्ठ कार्यों को ईश्वर को समर्पित कर उससे धर्म, अर्थ, काम मोक्ष की प्राप्ति की प्रार्थना करना होता है। सन्ध्या करने वाले व्यक्ति को यदि ईश्वर व जीवात्मा के साथ प्रकृति वा सृष्टि के सत्य स्वरूप का ज्ञान नहीं है तो उसे आशातीत सफलता नहीं मिल सकती। अतः इसके लिए सत्य ग्रन्थों सत्यार्थ प्रकाश, स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश वा आर्योद्देश्यरत्नमाला आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय अवश्यक करना चाहिये। स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश वा आर्योद्देश्यरत्नमाला ग्रन्थ तो अत्यन्त लघु ग्रन्थ हैं। इन्हें एक या दो घण्टे में ही पढ़ा, समझा जाना जा सकता है। इससे जो लाभ होता है वह हमारे विचार से बड़े से बड़े पोथे पढ़ने पर भी शायद् नहीं होता। हम सभी मित्रों का आह्वान करते हैं कि वह सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय का व्रत लें। वैदिक विधि से साधना कर अपनी आध्यात्मिक उन्नति करें और धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की सिद्धि को प्राप्त करने में सफल हों। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य 

 

4 thoughts on “अज्ञान और अंधविश्वास आध्यात्मिक उन्नति में बाधक

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लेख मान्यवर !

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री विजय जी। आज विजयदशमी पर्व पर आपको बधाई।

  • मनमोहन भाई , लेख अत्ति सुन्दर लगा .

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते, आभार एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी।

Comments are closed.