कहानी

कहानी – लॉकेट

“हैप्पी मदर्स डे, मॉम!” ट्विंकल ने माँ के गले में सोने का लॉकेट पहनाते हुए कहा। लॉकेट पर अंग्रेज़ी में ‘मॉम’ लिखा था। काली डोरी में बँधा लॉकेट बेहद आकर्षक था।

“थैंक्स माई चाइल्ड!” शीतल ने स्नेह से बेटी का माथा चूमा और पुन: व्यायाम करने लगी।

“मैं अपने फ़्रैंड्स के साथ जा रही हूँ मॉम! रात देर से आऊँगी।” ट्विंकल बाहर खड़ी गाड़ी की ओर लपकी।

“पर तेरे एग्ज़ाम का रिज़ल्ट आने वाला था न? वह कैसा रहा?” शीतल पलटी तब तक ट्विंकल गाड़ी में प्रतीक्षा करती अपनी टोली के साथ मौज-मस्ती के लिए रवाना हो चुकी थी।

मुस्कराती हुई मुखमुद्रा धूमिल पड़ गई। उसकी आँखों के ट्विंकल भी फीके पड़ गए। शीतल ने योगाभ्यास की चटाई लपेटी और उसे यथास्थान टिकाकर ट्विंकल के कमरे में आई और उसका बैग खँगाला। गणित का परीक्षा-पत्र उसमें तुड़ा-मुड़ा हुआ पड़ा मिला। उसपर लिखे शून्य दशमलव पाँच अंक शीतल की परिकल्पित आशाओं का सामयिक गणित बयाँ कर रहे थे। उसके विरक्त मुख पर चिंता की गहन रेखाएँ उभर आईं व विचलित मन पर आवृत विषाद के बादल अविलम्ब बरसने का मार्ग तलाशने लगे।

ट्विंकल के कमरे में सफ़ाई कर रही कमला के हाथ यह देख अचानक रुक गए। धम्म से पलंग पर गिरती शीतल को उसने सहारा देकर बिठाया। जग से गिलास में पलटकर पानी पिलाया। पानी पीती शीतल के कपोलों पर ढुलके आँसू कमला की अनुभवी दृष्टि से छिपे न रह सके। 

“क्या बात है दीदीजी?” न चाहते हुए भी कमला हिम्मत कर पूछ बैठी। अपने छोटे मुँह से बड़ी बात करते डर भी लग रहा था उसे। 

“कुछ नहीं, कमला!” शीतल ने गहरी श्वास भर अपना चेहरा घुमा लिया और पलंग पर फैले कपड़े सँभालने में व्यस्त दृष्टिगत हुई। बेराह होती औलाद का दर्द उसे जन्म देने के दर्द से कई गुणा बड़ा होता है। स्त्रियाँ कब शब्दों और अभिव्यक्ति के भरोसे रहती हैं, जिससे भावनाएँ जुड़ी हों, संवेदनाएँ स्वयं संप्रेषित हो जाती हैं। कमला समझ गई कि इस दर्द को उसकी मालकिन न बता पाएँगी न छिपा पाएँगी। अत: उन्हें एकांत देना उसने उचित जाना।

“चाय बना लाती हूँ, दीदीजी!” कहती हुई बहाने से वह कमरे से बाहर निकल गई।

कमला ट्रे में चाय नाश्ता ले आई तो देखा उसके जाने से पहले शीतल दीदीजी ने ट्विंकल के दो कपड़े तय किए थे, अब भी उतने ही तय थे और बाकी के पलंग पर इधर-उधर फैले हुए थे। ट्विंकल पार्टी में जाने के लिए बीसियों ड्रैस ट्राई किया करती और सब यूँ ही फैली छोड़कर निकल जाती। कपड़े वापस जमाने का काम वह ही किया करती थी किंतु इस स्थिति में उसे यह काम करना ठीक न लगा। शीतल को चाय देकर वह जाने लगी तो शीतल ने हाथ पकड़कर उसे बिठा लिया और फैले कपड़े फिर से बटोरने लग गई।

“तुम्हारी चाय? … कमला!” कहते हुए शीतल ने कमला की ओर देखा।

“रसोई में है दीदीजी!” कमला बाहर जाने को उत्सुक दिखी।

“क्या तू भी मुझे अकेला छोड़ देना चाहती है?” कमला को भौंचक पाकर शीतल आगे बोली, “यहीं ले आ अपनी भी चाय, कमला!” शीतल कपड़े जमाते हुए बोली।  

“अभी लाती हूँ दीदीजी।” कमला तुरंत दौड़कर अपनी चाय उठा लाई और पलंग के पास ज़मीन पर बैठ गई। शीतल के भारी मन को हलका करने के लिए वह कुछ भी कर सकती थी।

“आज तुम्हारी बेटी ने तुम्हें क्या उपहार दिया कमला?” कमला के हाथ में अधिकारपूर्वक बिस्कुट थमाते हुए शीतल पूछ बैठी।

“किस बात का उपहार दीदीजी?” कमला जानकर भी अनजान बनी रही और शीतल की आँखों में झाँक उसके मंतव्य का अनुमान लगाने लगी।

“मदर्स डे का… आज माओं का दिन है न! मातृ दिवस! … उसका क्या उपहार मिला है तुम्हें?” शीतल कभी-कभी जब शराब के नशे में होती थी तब ऐसी बहकी-बहकी बातें कमला से किया करती थी। आज कमला हैरान थी कि शराब को हाथ लगाए बिना ही उसकी दीदीजी अजीब-सी बात कर रही हैं तो ज़रूर उन्हें बहुत गहरा धक्का पहुँचा है जिससे वे आपे में नहीं हैं।

“हम गरीबों का कैसा मातृ-दिवस दीदीजी!” कमला जानती थी कि इस समय किसी भी प्रकार की बातें दीदीजी के सुलगते मन को शीतलता न दे पाएँगी।

“तुम्हारी बेटी पूनम भी तो स्कूल जाती है। आजकल तो स्कूलों में भी इस दिन का महत्त्व बताते हैं। क्या उसने तुम्हें कुछ उपहार नहीं दिया?” शीतल मानो अड़ी हुई थी। इन ऊट-पटाँग बातों से जाने वह क्या निकालना चाह रही थी। चाय की चुस्की लेते हुए भी उसकी आँखें कमला के चेहरे पर टिकी रहीं।

कोई और चारा न देख कमला ने अपने पेटीकोट के नाड़े से टँका छोटा-सा पर्स खोला और शीतल को दिखाया। उसे देख शीतल को कुछ समझ नहीं आया। उत्तर की अपेक्षा में उसने कमला को निहारा।

“दीदीजी! काम से मिले हुए पैसे मैं ब्लाऊज़ में रख लेती थी जो कभी-कभार रास्ते में गिर जाते थे या मेरी लापरवाही से खो जाते थे। पूनम ने रात में चुपचाप जागकर, क्रोशिया से बुनकर यह पर्स मुझे बनाकर दिया है ताकि मैं अपनी मेहनत की कमाई सुरक्षित घर ले आऊँ।” कमला उत्साहित थी। पर्स निकालकर दिखाते हुए कमला की आँखों में चमक और होठों पर एक मधुर मुस्कान तैर गई।

इस पर शीतल का बुझा हुआ चेहरा देख कमला को बहुत पछतावा हुआ कि अनजाने में ही वह दीदीजी के दु:ख को कुछ और बढ़ा गई है।

“क्या करेगी पर्स का? तुझे पैसे गिनना भी आता है क्या? हिसाब तक तो ठीक से समझ आता नहीं।” कहकर शीतल ठठाकर हँस दी।

वह हँसी कमला को चुभ ही गई जबकि वह जानती थी कि किसी भाँति शीतल दीदीजी अपने दर्द की दवा तलाश रही हैं। अपनी तकलीफ़ को कम करने के लिए कमला पर बाण-प्रक्षेपण कर रही हैं।  

“आता तो नहीं था दीदीजी! पर अब पूनम ने सिखा दिया है। किसी घर में जब मुझे हिसाब से कम पैसे मिलते हैं तो मैं जान जाती हूँ। किंतु मैं उनसे जिरह करके अपने पैसे नहीं माँगती, इस बात पर पूनम मुझसे बहुत झगड़ा करती है।” कहते-कहते मायूस हो गई थी कमला। चाहा था कि माँ से झगड़े वाली बात दीदीजी की चोट पर कुछ मरहम ही कहीं लगा जाए।

“ऐसा कुछ तोहफ़ा नहीं दिया पूनम ने तुम्हें?” अपने गले में पड़े हुए लॉकेट को उलटते-पलटते हुए शीतल ने फिर पूछा।

“लॉकेट तो नहीं दीदीजी! पर सुबह जब हिसाब से कम पैसे लेकर घर पहुँची थी और मैंने गलत हिसाब की गणना उसे दशमलव तक में सही बता दी तो गुस्सा होने की बजाए अपनी बाँहों का हार उसने मेरे गले में डाल दिया था। यही तोहफ़ा है दीदीजी मेरे लिए तो। मैंने अपने मालिक लोगों से कभी बद्जुबानी नहीं की और इस अपराध के लिए आज उसने मुझे माफ़ कर दिया।” कमला अपना पर्स वापस अपने नाड़े में बाँधते हुए बोली।  

शीतल का चेहरा सफ़ेद पड़ गया। उसे लगा जैसे काटो तो खून नहीं। बैठे-बैठे उसपर जैसे घड़ों पानी पड़ गया। आज सुबह उसने भी तो कमला को हिसाब के पैसे दिए थे और उसकी छुट्टी के पैसे काटे थे।

कमला भी भाँप गई थी कि वह क्या बोल गई है। सुड़ुप-सुड़ुप कर आती चाय की उसकी ध्वनि मंद पड़ती गई थी। वह अनायास ही आत्मग्लानि के भँवर में चक्कर काटने लगी थी।

“कहाँ तक पढ़ना चाहती है पूनम?” कुछ देर बाद शीतल किसी यंत्रचालित उपकरण-सी बोली जिसमें निहित कोई भी भाव कमला की समझ न आ सका।

“वह कुछ सीए जैसा कहती है पढ़ने को और चिंता में डूबी रहती है कि उसकी फ़ीस का इंतज़ाम कैसे होगा।” कमला ने जो शब्द याद किया था सी.ए., वह यत्न से दोहरा दिया था। इस बात को कहते अकसर हुए जिस जोश का वह प्रदर्शन किया करती थी, वह आज कहीं नदारद दिखा।

“यह लॉकेट तुम रख लो कमला! पूनम की सी.ए. की आधी फ़ीस तो निकल ही जाएगी।”

अपने गले से लॉकेट निकालते हुए शीतल उसे कमला की मुट्ठी में दबाने लगी तो कमला के चेहरे पर एकसाथ सैंकडों भाव आए और गए।

कमला के कंधे पर अपने स्पर्श से उसे सहारते हुए बोली, “तुम्हारी दीदीजी होने के नाते मैं भी तो उसकी छोटी मौसी हूँ, माँ जैसी…!”

-डॉ. आरती लोकेश

डॉ. आरती ‘लोकेश’

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