दशहरा उत्सव
रावण ज्ञानी था अभिमानी बात किसी की ना मानी
द्वेष दंभ की अग्नि में जल के राख हुई सब मनमानी
हठयोगी मिल गया धूल में धरा घृणा से भरी हुई
राघव ने जब बाण चलाया,आत्मा निकली मरी हुई
सत्र बीत गए पर वायु में रावण के गुण समाहित हैं
हवन करो सब निर्मल हो,छवि राम बने तो ही हित है
पहले एक ही रावण था प्रभु एक ही रूप धर आये
अब स्वयं ही भ्रम में उलझे प्रभु कितने रूप बनायें
विश्वासघात है मेघनाथ,न्याय कुम्भकर्ण सा सोया है
भ्रष्टाचार रावण सम गरजा गगन हृदय भी रोया है
जब तीनों का कुटिल रूप,शव में परिवर्तित होगा
तब दशहरे का पर्व एक उत्सव में परिवर्तित होगा
वैभव दुबे’विशेष’