गोरक्षा-आन्दोलन और गोपालन का महत्व
ओ३म्
आर्य विद्वान और नेता लौह पुरूष पं. नरेन्द्र जी, हैदराबाद की आत्मकथा ‘जीवन की धूप–छांव’ से गोरक्षा आन्दोलन विषयक उनका एक संस्मरण प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि ‘सन् 1966 ईस्वी में पुरी के जगद्गुरु शंकराचार्य के नेतृत्व में गोरक्षा आन्दोलन चलाया गया था। पांच लाख हिन्दुओं का एक ऐतिहासिक जुलूस लोकसभा तक निकाला गया था। वहां पहुंचकर प्रधानमन्त्री, गृहमन्त्री श्री गुलजारी लाल नन्दा को गोरक्षा नियम बनाने के लिए ध्यानाकर्षण के निमित्त ज्ञापन दिया गया। भारत सरकार ने अपनी शक्ति के द्वारा इस आन्दोलन को समाप्त करने का प्रयत्न आरम्भ कर दिया। सत्याग्रह आन्दोलन उभरता ही गया। हजारों आर्य समाजियों ने सत्याग्रह में भाग लिया। हैदराबाद में पुरी के शंकराचार्य ने 1968 ई. में गोरक्षा-सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए कहा था – ‘‘गोरक्षा आन्दोलन में आर्यसमाज ने अपना जो योगदान दिया है, उसके लिए मैं आर्यसमाज का जन्म भर आभारी रहूंगा।” इस आन्दोलन में 21 गोभक्त शहीद हुए। कांग्रेसी राज्य के अत्याचार अनाचार, मारपीट के बावजूद भारत के कोने-कोने से लगातार जत्थे देहली पहुंचकर अपने-आपको गिरफ्तार कराते रहे। ऐसे अवसर पर चुप्पी साधकर बैठना मेरी (पं. नरेन्द्र की) प्रकृति के विरुद्ध था। मैंने उस समय दिल्ली पहुंच कर 112 सत्याग्रहियों के साथ चांदनी चैक, दिल्ली में हजारों हिन्दुओं और आर्यों की उपस्थिति में सत्याग्रह किया। हम सबको तिहाड़ जेल पहुंचा दिया गया, जहां मजिस्ट्रेट ने एक-एक मास की सजा सुनाई। हैदराबाद से श्री मुन्नालाल मिश्र, श्री गोपाल देवशास्त्री, श्री सोहनलाल वानप्रस्थी और श्री बंसीलाल जी के अतिरिक्त जालना, गुलबर्गा के आर्य समाजियों ने इसमें बढ़-चढ़ के भाग लिया था। श्री करपात्री जी के त्रुटिपूर्ण नेतृत्व के कारण यह आन्दोलन सफलता के द्वार तक पहुंचने से पूर्व ही सरकार की कूटनीति का शिकार हो गया।’
ईश्वरीय ज्ञान वेद में ईश्वर ने गोमाता को ‘‘गो सारे संसार की मां है” कहकर सम्मान दिया है। यजुर्वेद के पहले ही मन्त्र में गो की रक्षा करने का निर्देश ईश्वर की ओर से दिया गया है। गोदुग्ध पूर्ण आहार है। जिस बच्चे व अति वृद्ध के मुंह में दांत नहीं होते उनका पालन पोषण भी गो दुग्ध के द्वारा होता है। हमने पढ़ा था कि भूदान यज्ञ के नेता विनोबा भावे जी को उदर रोग था जिस कारण अन्न का सेवन उनके लिए निषिद्ध था और वह गो दुग्ध पीकर ही जीवन निर्वाह करते थे। पं. प्रकाशवीर शास्त्री ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘गोहत्या राष्ट्र हत्या’ में लिखा है कि अनुसंधान में यह पाया गया है कि यदि गो को कई दिनों तक चारा न भी दिया जाये तब भी वह कई दिनों तक भूखी रहकर दूध देती रहती है। हमने स्वामी ओमानन्द सरस्वती जी की पुस्तक ‘गोदुग्ध अमृत है।’ में पढ़ा था कि एक निर्धन व असहाय किसान की आंखों की रोशनी चली गयी। उसके घर में एक गाय की बछिया थी जिसे उसका पुत्र पाल रहा था। कुछ महीनों बाद वह गाय बियाई तो घर में दुग्ध की प्रचुरता हो गई। कुछ ही दिनों में उस परिवार में चमत्कार हो गया। उस वृद्ध की आंखों की रोशनी गाय का दूध पीने से लौट आई। आज के समय का सबसे भयंकर रोग कैंसर है। इस रोग में भी गाय का मूत्र कारगर व लाभप्रद सिद्ध होता है। गोसदन में यदि क्षय रोगी को रखा जाये तो उसका रोग भी ठीक हो जाता है। महर्षि दयानन्द ने अपनी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक गोकरुणानिधि में एक गाय की एक पीढ़ी से होने वाले दुग्ध और उसके बैलों से मिलने वाले अन्न की एक कुशल अर्थशास्त्री की भांति गणना की है और बताया है कि गाय की एक पीढ़ी से ‘दूध और अन्न को मिला कर देखने से निश्चय है कि 4,10,440 चार लाख दश हजार चार सौ चालीस मनुष्यों का पालन एक बार के भोजन से होता है।’ मांस से उनके अनुमान के अनुसार केवल अस्सी मांसाहारी मनुष्य एक बार तृत्प हो सकते हैं। वह लिखते हैं कि ‘‘देखों, तुच्छ लाभ के लिए लाखों प्राणियों को मार असंख्य मनुष्यों की हानि करना महापाप क्यों नहीं?’’
महर्षि दयानन्द ने अपने समय में गोरक्षा का आन्दोलन भी चलाया था। वह अनेक बड़े अंग्रेज राज्याधिकारियों से मिले थे और गोरक्षा के पक्ष में अपने तर्कों से उन्हें गो हत्या को बन्दर करने के लिए सन्तुष्ट वह सहमत किया था। उन्होंने करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर कराकर महारानी विक्टोरिया को भेजने की योजना भी बनाई थी जो तेजी से आगे बढ़ रही थी परन्तु विष के द्वारा उनकी हत्या कर दिये जाने के कारण गोरक्षा का कार्य अपने अन्तिम परिणाम तक नहीं पहुंच सका।
ईश्वर से गोरक्षा की प्रार्थना करते हुए वह गोकरुणानिधि पुस्तक की भूमिका में महर्षि दयानन्द कहते हैं कि ‘ ऐसा सृष्टि में कौन मनुष्य होगा जो सुख और दुःख को स्वयं न मानता हो? क्या ऐसा कोई भी मनुष्य है कि जिसके गले को काटे वा रक्षा करें, वह दुःख और सुख का अनुभव न करे? जब सब को लाभ और सुख ही में प्रसन्नता है, तो बिना अपराध किसी प्राणी का प्राण वियोग करके अपना पोषण करना यह सत्पुरुषों के सामने निन्दित कर्म क्यों न होवे? सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर इस सृष्टि में मनुष्यों के आत्माओं में अपनी दया और न्याय को प्रकाशित करे कि जिससे ये सब दया और न्याययुक्त होकर सर्वदा सर्वोपकारक काम करें और स्वार्थपन से पक्षपातयुक्त होकर कृपापात्र गाय आदि प्शुओं का विनाश न करें कि जिससे दुग्ध आदि पदार्थों और खेती आदि क्रियाओं की सिद्धि से युक्त होकर सब मनुष्य आनंद में रहे।’
हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह गो का मांस खाने वाले मनुष्यों के हृदयों में सत्य ज्ञान का प्रकाश करे जिससे वह गोहत्या व गोमांस भक्षण का त्याग करके गो हत्या के महापाप और ईश्वर के दण्ड से बच सकंे तथा उनका अगला जन्म, जो कि निःसन्देह होना ही है, उसमें उन्हें निम्न जीवयोनियों में पड़कर दूसरों जीवों को लिए दुःख के समान स्वयं दुःख न भोग पड़े।
–मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।